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१३० तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २: सूत्र ५२
इस विषय में सिद्धान्त यह है कि जो आयु १०-२० - २५ अथवा ५० वर्ष में भोगी जाने वाली थी, उसे वह एक अन्तर्मुहूर्त अथवा आवलिकामात्र काल में ही भोगकर पूरा कर लेता है। क्योंकि कोई भी जीव आयु पूरी किये बिना दूसरी गति में उत्पन्न नहीं हो सकता ।
इस बात को एक दृष्टान्त से समझिये । मान लीजिए-एक तिनकों का (तृणों का ) ढेर हैं, उसमें आग की एक चिंगारी छोड़ दी गई तो वह धीरेधीरे, एक-एक तिनके को जला रही है और यदि उसके चारों ओर तथा बीच में आग की लपट छोड़ दी गई तो तिनकों का पूरा ढेर कुछ ही क्षणों में जलकर स्वाहा हो जायेगा ।
दूसरा दृष्टान्त लीजिए
एक मिट्टी के घड़े में बहुत ही छोटा-सा छेद है, एक-एक बूंद पानी टपक रहा है, घड़ा धीरे-धीरे खाली हो रहा है। किन्तु किसी व्यक्ति ने उसमें एक पत्थर मार दिया, घड़ा फूट गया, सारा पानी एकदम दुल गया ?
एक अग्निकण द्वारा एक-एक तिनके को जलाया जाना - सामान्य आयुभोग है और लपट द्वारा तिनकों के ढेर की भस्म हो जाना आयु का शीघ्र ही क्षीण हो जाना समाप्त हो जाना है ।
यही बात दूसरे दृष्टान्त में है। एक-एक बूंद टपक रही है तो सामान्य रूप से आयु पूरी हो रही है और पत्थर की चोट से जो घड़ा फूटा और सारा पानी ढुल गया वह आयु का शीघ्र ही समाप्त हो जाना है ।
मूल बात यह है कि आयु, चाहे अपवर्तनीय ही क्यों न हो, अवश्य ही पूरी होती हैं, सिर्फ मारक निमित्त मिलने से उसका भोग जल्दी पूरा हो जाता है; इतना ही भेद है । यानी सिर्फ शीघ्रता और सामान्यता का अन्तर पड़ता है ।
जिन जीवों की सूत्र में अनपवर्तनीय आयु बताई है, उसका प्रमुख और आन्तरिक कारण यह है कि उनका आयु-बंधन इतना सघन और होता है कि बीच में टूट ही नहीं सकता ।
दृढ़
इसके विपरीत अपवर्तनीय आयु वाले जीवों का आयुबंधन इतना सुदृढ़ और सघन नहीं होता । आयु के टूटने को जन-सामान्य की भाषा में 'अकाल मृत्युं' कहा जाता है ।
इसलिए यह कहना अधिक उचित है कि निश्चयनय के अनुसार तो आयु नहीं टूटती किन्तु व्यवहारनय के अनुसार टूट सकती है
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