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हैं।
अधोलोक तथा मध्यलोक
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( वहाँ परस्पर एक-दूसरे के शरीर को पीड़ा देते हुए वेदना उत्पन्न करते
अनेक प्रकार के आयुध-शस्त्र - मुद्गर, भुसण्डि आदि तथा अन्य अशुभ विक्रियाओं से सैकड़ों चोट करते हुए तीव्र वैर का बन्धन करके एक दूसरे को वेदना उत्पन्न करते हैं ।
वह नरक के बिल अन्दर से गोल, बाहर से चौकोर तथा नीचे छुरी की रचना के समान हैं । वहाँ सदा गहन अन्धकार रहता है और मांस की कीचड़ से सब ओर पुते हुए, अपवित्र आसन वाले, व परम अशुभ होते हैं । उनको कष्ट भी अशुभ होते हैं ।
नारकियों के तीन लेश्या होती हैं- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोत
लेश्या
नारकियों को अत्यन्त शीत लगता है, अत्यन्त गर्मी लगती है, अत्यन्त प्यास लगती है, अत्यन्त भूख लगती है और अत्यन्त भय लगता है । वहाँ तो केवल दुःख, असाता और अविश्राम ही है ।)
नारकियों के दुःख-
नित्याशु भतरले श्यापरिणामदे हवे दनाविक्रिया ॥३॥
परस्परोदीरितदुःखाः ॥४।
संक्लिष्टासुरो दीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः | ५ |
उन (नारकजीव ) की लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया निरन्तर (सदा ही) अशुभतर होती हैं ।
वे परस्पर एक-दुसरे को दुःख देते रहते हैं ।
चौथी नरक भूमि से पहले यानी तीसरी नरकभूमि तक संक्लिष्ट असुर भी उन्हें पीड़ित करते हैं ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र ३, ४, ५ में नरक और नरकों में निवास करने वाले नारकी जीवों के दुःख बताये गये हैं ।
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नित्य • नित्य शब्द का अर्थ यहाँ निरन्तर अथवा सदैव है । नारकी
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(जीवों को सदा दुःख ही दुःख है । सुख का लेश भी नहीं है । तीर्थंकर के जन्म के समय उन्हें कुछ क्षण के लिए सुख का अनुभव होता है । वैसे वहाँ दुःख ही है ।
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