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१५० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ३ : सूत्र ७-८
(हे गौतम! इस तिर्यक्लोक में जम्बूद्वीप आदि असंख्य द्वीप, लवण समुद्र आदि असंख्य समुद्र हैं, सबसे अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र हैं ।)
जंबद्दीवं णाम दीवं लवणे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सब्बतो समंता संपरिक्खत्ता णं चिट् ठिति
- जीवाभिगम, प्रतिपत्ति ३, उ.२, सूत्र १५४ जंबुद्दीवाइया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणतो एगविहविधाणा वित्थारतो अणेगविधविधाणा दुगुणादुगुणे पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा आभासमाणवीचिआ - जीवाभिगम, प्रतिपत्ति ३ उ. २, सूत्र १२३
(जम्बूद्वीप नाम का द्वीप हैं और लवणसमुद्र नाम का समुद्र है । वह गोल वलय के आकार में स्थित है और जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए
(जम्बूद्वीप आदि द्वीपों और लवण आदि समुद्रों की रचना की अपेक्षा एक ही भेद है, किन्तु विस्तार से अनेक प्रकार के भेद हैं । यह दुगुने-दुगुने होते हुए विस्तार को प्राप्त होते हुए शोभित हैं ।)
विशेष - सारांश यह है कि सब द्वीप-समुद्रों का विस्तार पहलेपहले से दुगुना-दुगुना है और वह गोल आकृति को धारण करते हुए पूर्व-पूर्व को घेरे हुऐं हैं ।) तिर्यक् लोक के द्वीप-समुद्र - .
जंबूद्वीपलवणादय : शुभनामानो द्वीपसमुद्रा : । ७ । द्विर्द्विर्विष्कम्भा : पूर्व-पूर्व परिक्षेपिणो वलयाकृतय : ।८। जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवणसमुद्र आदि शुभ नाम वाले द्वीपसमुद्र
यह सभी द्वीप-समुद्र दुगुने-दुगुने विस्तार वाले, चूड़ी के समान आकार वाले, अपने से पहले-पहले के द्वीप समुद्र को घेरे हुए हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत दो सूत्रों में तिर्यक लोक का वर्णन किया गया है।
इस तिर्यक्लोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं और ये सभी द्वीप-समुद्र दुगुने-दुगने विस्तार वाले हैं । इनका आकार चूड़ी के समान गोल हैं तथा यह अपने से पहले द्वीप-समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए हैं ।
इन सूत्रों द्वारा जैनदृष्टिमान्य तिर्यक्लोक अथवा मध्यलोक की रचना बताई गई है । इसका अभिप्राय यह है कि मध्यलोक चूड़ी के
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