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१५८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ३ : सूत्रं १२-१८
वस्तुतः (आर्य शब्द श्रेष्ठता का द्योतक है ) अतः श्रेष्ठ गुण वाले, शील सदाचार संपन्न व्यक्ति आर्य कहलाते हैं ।
म्लेच्छ वे मनुष्य कहलाते हैं, जिनका आचरण, निन्दित और गर्हित होता है । जिनके खान-पान, बोल-चाल, आचार-विचार आदि क्रूरतापूर्ण एवं हिंसाप्रधान हो ।
स्थिति अथवा आयुमर्यादा - मनुष्य और तिर्यच जीवों की कम से कम आयु अन्तर्मुहूर्त है और अधिक से अधिक तीन पल्योपम । इस उत्कृष्ट और जघन्य आयु के मध्यवर्ती असंख्यात भेद होते हैं। यानी किसी मनुष्य की आयु एक पल्योपम, दो पल्योपम आदि असंख्यात प्रकार की हो सकती है । यही बात तिर्यंच जीवों के लिए भी है ।
सूत्र में यह सामान्य कथन हैं । मनुष्य तो पंचेन्द्रिय होते हैं किन्तु तिर्यंच गति के अनेक भेद-उपभेद हैं । इसमें स्थावर-काय, त्रसकाय, सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि अनेक भेद हैं। पंचेन्द्रिय के ही जलचर, स्थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प आदि भेद हैं । इन सब की उत्कृष्ट और जघन्य आयु भी अलग-अलग हैं ।
यहां जो उत्कृष्ट तीन पल्योपम की आयु तिर्यंच जीवों की बताई गई, वह गर्भोत्पन्न, चतुष्पद, स्थलचर, तिर्यंच जीवों की समझना चाहिए । इस स्थल पर आगमोक्त (प्रज्ञापना) उद्धरण सटीक है ।
- मूल सूत्र में सामान्य कथन करने के बाद आचार्य ने अपने भाष्य में तिर्यंच जीवों की स्थिति (आय) का विशेष कथन किया है । उनके कथन का सार इस प्रकार है -
स्थिति दो प्रकार ही है - १. भवस्थिति और २. कायस्थिति। भवस्थिति का अभिप्राय जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त एक ही शरीर में रहने की काल सीमा है) और कायस्थिति का अभिप्राय एक ही गति में निरन्तर बार-बार जन्म ग्रहण करना है ।
मनुष्य गति में कोई भी जीव लगातार अधिक से अधिक सात-आठ बार ही जन्म ले सकता है । कायस्थिति जघन्य अन्तमूहूर्त ही है । भवस्थिति भी जघन्य अन्तमुहूर्त ही है ।
किन्तु तिर्यंचों की कायस्थिति और भवस्थिति में अन्तर हैं। अतः इन दोनों स्थितियों का ज्ञान कराने के लिए विशेष वर्णन किया जा रहा ह।
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