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१४६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ३ : सूत्र ३-४-५
(ग) परमाधार्मिक देवजन्य वेदना परमाधार्मिक देव भवनपति जाति के देव होते हैं । प्रथम नरक भूमि में जो १२ आंतरे बताये गये हैं; उनमें से बीच के दस आंतरों में भवनपति देव रहते हैं ।
परमाधार्मिक देव १५ प्रकार के हैं १. अम्ब, २. अम्बरीष, ३. श्याम, ४. सबल, ५. रुद्र, ६. महारुद्र, ७. काल, ८. महाकाल, ९. असिपत्र, १०. धनुष्य, ११. कुम्भ, १२. बालुका, १३. वैतरणी, १४ खरस्वर और १५. महाघोष.
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यह १५ प्रकार के परमाधार्मिक देव संक्लिष्ट परिणाम वाले होते हैं । दूसरों को दुखी करने में इन्हें आनन्द आता है । जैसे - दुर्जन व्यक्ति शांत बैठे कुत्तों को परस्पर लड़ाकर मजा लेते हैं, वैसी ही प्रवृत्ति इन परमाधार्मिक देवों की होती है । यह भी नारकियों को उकसाते हैं, मारपीट कराते हैं और मजा लेते हैं । यह तीसरी नरक तक के नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं,. उनके कष्टों को बढ़ाते हैं । इनके द्वारा दी गई वेदना देव-जन्य या अधर्मजन्य वेदना कही जाती है ।
इस प्रकार नारकी जीवों को निरन्तर दुःख, कष्ट और वेदना ही भोगनी पड़ती हैं । उनके कष्ट अनन्त हैं, इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा दुःख नहीं जिसके साथ उनके दुःखो की तुलना की जा सके ।
नारकी जीव इन अत्यधिक और घोर कष्टों से घबड़ाकर मरने की इच्छा करते हैं; किन्तु उनकी यह इच्छा भी पूरी नहीं हो पाती । इसका कारण यह है कि इनकी आयु अनपवर्त्य होती है । ऐसी आयु बीच में टूट ही नहीं सकतो । वह तो पूरी की पूरी भोगनी ही पड़ती है ।
आगम वचन
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सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण वियाहिया ।
पढमाए जहन्नेणं दसवाससहस्सिया । १६० ।
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.. तेत्तीस सागरा उ, उक्कोसेणे वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमा । १६६ ।
उत्तराध्ययन सूत्र ३६/१६०-६६ (प्रथम नरक की जघन्य आयु दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु एक सागर है । दूसरे नरक की जघन्य आयु एक सागर तथा उत्कृष्ट आयु तीन सागर है । तीसरे नरक की जघन्य आयु तीन सागर और उत्कृष्ट आयु सात सागर है । चौथे नरक की जघन्य आयु सात सागर और उत्कृष्ट आयु दश सागर है । पांचवें नरक की जघन्य आयु दश सागर और उत्कृष्ट आयु सह
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