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जीव-विचारणा १२७ जीवों तथा मच्छर-मक्खी आदि चतुरिन्द्रिय जीवों के अध्ययन से भी स्पष्ट हो गया है कि नर-चींटी-दीमक द्वारा सेचन के पश्चात मादा चींटी-दीमक आदि अण्डे देता हैं । जूं के अण्डे लीख से तो सभी परिचित हैं, वह भी त्रीन्द्रिय जीव है । यही बात मक्खी -मच्छर आदि के बारे मे हैं । यह तथ्य सार्वजनीन हो गया है ।
तब प्रश्न यह हो सकता है कि इन्हें सम्मूछिम जीव क्यों कहा गया?
इस शंका का समाधान यह है कि सम्मूछिम जीव भी बीज और योनि के संयोग से उत्पन्न होते हैं किन्तु गर्भज जीवों की अपेक्षा उनकी उत्पत्ति प्रक्रिया में बहुत अन्तर है । इस प्रक्रिया अन्तर के कारण भी उन्हें सम्मूच्छिम कहा जाता है ।
फिर सम्मूर्छन का लक्षण ही यह है- 'सं समन्तात् मूर्छनं जायमान जीवानुग्राहकाणां शरीराकारपरिणमनयोग्यपुद्गलस्कन्धानां समुच्छयणं सम्मूर्छनम्। अर्थात्-सं-समस्तरूप से, मूर्छनम्-जन्म ग्रहण करना। जो जीव, उसको उपकारी ऐसे जो शरीराकार परिणमने योग्य पुद्गल स्कन्धों का एकत्र होनाग्रहण होना-प्रगट होना, सम्मूर्छन जन्म है ।
अतः सम्मूर्छन जन्म स्पष्ट ही गर्भजन्म तथा उपपात जन्म से पृथक् है, इसकी सम्पूर्ण क्रिया प्रक्रिया भी अलग हैं ।
यद्यपि उपपात जन्म में भी पुद्गलों का ग्रहण सभी दिशाओं से होता है, किन्तु वहाँ बीज का पूर्णतया अभाव है, अतः उपपात जन्म कभी भी सम्मूर्छन जन्म नहीं हो सकता ।
प्रस्तुत दोनों सूत्रों में नरकगति, सम्मूर्च्छन जन्म वाले तथा देवों का वेद बता दिया तो अब जो जीव शेष बचे, वे तीनों वेद वाले होते हैं, ऐसा स्वयं ही प्रकट हो जाता है । स्वयं भाष्यकार उमास्वाति के शब्दों में -
"पारिशेष्याच्च गम्यत्ते जराय्वण्डजपोतजास्त्रिविधा भवन्ति-स्त्रियः पुमांसो नपुंसकानीति ।"
(परिशेष न्याय से शेष जीव जरायुज, अण्डज, पोतज (गर्भजन्म वाले । सभी जीव) स्त्री, पुरूष और नपुंसक तीनों वेद वाले होते हैं ।
इसका अभिप्राय यह है कि इन जीवों में तीन वेद पाये जाते हैं ।
दिगम्बर परम्परा में यही बात 'शेषास्त्रिवेदाः' एक स्वतन्त्र सूत्र रच कर कही गई है।
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