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१२६ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ४९-५०-५१ ज्योतिष्क और वैमानिक भी स्त्री तथा पुरुष वेद वाले होते हैं, नपुसंक नहीं होतें ।) वेदों (लिंगों) के धारक - .
नारकसम्मछिनो नपुंसकानि । ५०। न देवा: । ५१। नारक और सम्मूर्च्छन जीव नपुंसक होते हैं । ( देव नपुंसक नहीं होते )
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में नपुंसकलिंग को प्रधानता देकर बताया गया है कि नारक और संमूर्छिम-सभी नपुंसक होते हैं और देव नपुंसक नहीं होते। इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि देव या तो स्त्रीवेदी होते है अथवा पुरुषवेदी । .
वेद - वस्तुतः चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृति है, जिसके तीन भेद हैं (१) स्त्रीवेद, (२) पुरुषवेद और (३) नपुंसकवेद ।
स्त्रीवेद का अभिप्राय है पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा और पुरुषवेद का स्त्री के साथ तथा नपुंसकवेद का दोनों के साथ ।
सूत्र में बताया है कि नारक और सम्मूछिम जीव नपुंसकवेदी होते
सम्मच्छिम जीव वे होते हैं जो माता-पिता के रज-वीर्य के बिना ही उत्पन्न होते हैं ।
साधारणतया यह माना जाता है कि एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव सम्मच्छिम होते हैं । किन्तु सम्मूच्छिम का अर्थ यह नहीं है कि वे बिना बीज और योनि के ही उत्पन्न हो जाते हैं । यह बात अलग है कि इनकी सेचन क्रिया (Fertilisation) का ढंग दूसरे प्रकार का है ।
यह प्रत्यक्ष प्रमाणित है कि मेघजल से कोमल उपजाऊ भूमि में स्वयं ही वनस्पति उत्पन्न हो जाती है और कठोर ऊसर भूमि में नहीं होती । यहाँ कोमल भूमि विवृत योनि का काम करती है और मेघजल को तो आचारांग में भी उदकगर्भ (Embrosia) कहा ही है, अतः मेघजल भूमि स्थित बीज को उत्पन्न करने में प्रमुख सहायक बनता है ।
इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीव लट (कृमि) आदि भी बीज और योनि (जल सहित सचित्त मिट्टी) में उत्पन्न होते हैं । चींटी, दीमक आदि त्रीन्द्रिय
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