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१२२ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ४५-४६ की सारी क्रियाएँ तो प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं । देव और नारकी अपने वैक्रिय शरीर से सुख-दुःख का अनुभव करते हैं । आहारक से भी मुनिराज अपना प्रयोजन सिद्ध करते ही हैं । अतः यह सभी शरीर सोपभोग हैं ।
किन्तु कार्मणशरीर यदि अकेला ही हो तो कोई भी उपभोग नहीं कर सकता । यही कारण है कि कार्मणशरीर के साथ विग्रहगति में भी तैजस् शरीर साथ ही रहता है । क्योंकि कार्मणशरीर तो कर्मों का बन्धन भी नहीं कर सकता; यदि तैजस् साथ न हो तो विग्रहगति में संसारी जीव अबन्ध ही हो जायेगा । - आगम के जो विग्रहगति सम्बन्धी वचन यहाँ उद्धृत किये गये हैं उनका भी यही गूढ़ अभिप्राय है कि कार्मणशरीर (अकेला) तो निरुपभोग है किन्तु तैजस् उपभोगवान है । आगम वाचन -
उरालिएसरीरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णत्ते ? . गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते तं जहा - सम्मुच्छिम गब्भवक्कं तिय । - - प्रज्ञापना पद २१ (भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ?
गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा (१) सम्मूर्छिम जन्म वालों के और गर्भजन्मवालों के ।) औदारिक शरीर किनको ?
गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ।४६।
गर्भ और सम्मूर्छिम रूप से उत्पन्न होने वाले जीवों के (पहला) औदारिक शरीर होता है ।
विवेचन - गर्भ से और सम्मूर्छिम रूप से जन्म सिर्फ मनुष्यों और तिर्यंचो का ही होता है, अतः औदारिक शरीर भी इन्ही दो के होता है । सभी मानव और तिर्यंच औदारिकशरीरी ही होते हैं । आगम वचन -
णेरइयाणं हो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहाअब्भंतरगे चेव बाहिरगे चेव अभंतरए कम्मए बाहिरए वेउविए, एवं देवाणं ।
स्थानांग, स्थान २, उ. १, सूत्र ७५
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