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जीव-विचारणा १२१ अधिक से अधिक चार शरीर ही संभव है; पाँचो शरीर किसी के नहीं हो सकते आगम वचन -
विग्गहगइ समावन्नगाणं नेरइयाणं दो सरीरा पण्णत्ता, तं जहातेयए चेव कम्मए चेव । निरंतरं जाव वेमाणियाणं ।
__ स्थानांग, स्थान २, उ. १, सूत्र ७६ गोयमा ! ओरालिय-वेउव्विय-आहारियाई पडुच्च असरीरी वक्कमइ। तेयाकम्माइं पडुच ससरीरी वक्कमइ । -भगवती, श.१, उद्धेशक ७
(विग्रह गति में नारकियों के दो शरीर होते हैं - (१) तैजस् और (२) कार्मण । इसी प्रकार (तिर्यंच, मनुष्य) और देवों में भी विग्रहगति में दो ही शरीर (तैजस् और कार्मण) होते हैं ।
गौतम ! औदारिक, वैक्रिय, आहारकशरीर की अपेक्षा (जीव) शरीर रहित (विग्रह गति में नया शरीर धारण करने के लिए) गमन करता है और तेजस् तथा कार्मण शरीर की अपेक्षा शरीर सहित गमन करता है ।) . कार्मण शरीर की निरुपभोगिता -
निरुपभोगमन्त्यम् ।४५। 'अन्त का शरीर (कार्मणशरीर) उपभोग रहित है । विवेचन - प्रस्तुतसूत्र में कार्मणशरीर को निरूपभोग बताया गया है।
उपभोग का लक्षण - उपभोग का प्रस्तुत सन्दर्भ में विशिष्ट अर्थ है । जीव सामान्य दशा में इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये हुए विषयों का उपभोग करता है, इसी तरह सुख-दुःख आदि का वेदन करता है, इत्यादि अनेक क्रियाएँ करता है और उनका उपभोग करता है ।
किन्तु यह सारी बातें, उपभोग वह अकेले कार्मण शरीर से नहीं कर सकता; दूसरे शब्दों में कार्मण शरीर अकेला इनका उपभोग नहीं कर सकता, उसे अन्य शरीरों की सहायता अनिवार्य होती है । औदारिक, तैजस् आदि शरीर के अभाव में वह उपभोग में भी असमर्थ होता है ।
इसका अभिप्राय यह भी है कि अन्य चारों शरीर उपभोग करते हैं। तैजस्शरीर पचन-पाचन आदि करता है ,शाप वरदान आदि भी इसी का कार्य है । औदारिक वैक्रिय द्वारा भी सुख-दुःख का वेदन होता है, औदारिक
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