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. जीव-विचारणा १०३ यहाँ आचार्य का शब्द-चयन कौशल दर्शनीय है । उन्होंने शब्द को श्रोत्र इन्द्रिय का विषय बताया, जिसका अभिप्राय सिर्फ सुनना मात्र है और श्रुत (अथवा श्रुतज्ञान-भावश्रुत) को मन का विषय बताया, जो विचार और चिन्तनरूप है, शब्द से भाव की ओर प्रयाण करना है । आगम वचन -
एगिन्दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवण्णा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- पुढवीकाइया आऊकाइया तेऊकाइया
वाउकाइया वणस्सइकाइया ...... कि मिया-पिपीलिया-भमरा-मणुस्सा
- प्रज्ञापना सूत्र, प्रथम पद (एकेन्द्रिय संसार समापन्न जीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) पृथिवीकायिक, (२) जलकायिक, (३) अग्निकायिक, (४) वायुकायिक और (५) वनस्पतिकायिक ।
कृमि (कीड़ा-लट आदि), पिपीलिका (चींटी) भ्रमर (भौंरा), मनुष्य- (इनके क्रम से एक-एक इन्द्रिय की वृद्धि होती है । इन्द्रियों के स्वामी -
वनस्पत्यन्तानामे कम्' ।२३। ... कृमि - पिपीलिका-भ्रमरमनुष्यादीनामेकै कवृद्धानि ।२४।
१. कुछ प्रतियों में 'वाय्वान्तामेकम्' यह सूत्र भी मिलता है । इसमें हेतु यह है कि इन्होंने १३ वें और १४ वें सूत्र का पाठ 'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः तथा तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्चत्रसाः । १४ यह माना है । तब एकेन्द्रिय जीवों को बताने के लिए 'वाय्वान्तामेकम्' यह सूत्र कहना ही चाहिए, क्योंकि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति यह पाँचो एकेन्द्रिय जीव हैं ।
किन्तु हमने जो मूल पाठ 'वनस्पत्यन्तानामेकम्' स्वीकार किया है उसका प्रथम कारण तो आगम का अनुसरण है ही, क्योंकि प्रज्ञापना में इसी क्रम से पाठ आता है । और दुसरा कारण यह है कि हमने १३ वें सूत्र का मूल पाठ पृथिव्यतेजो वायुवनस्पतय: स्थावरा: ।१३। यह स्वीकार किया है । इस सन्दर्भ में यह पाठ स्वीकार किया गया है ।
-सम्पादक
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