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१०२ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र २०-२२
चक्षु के ५ विषय - १. श्वेत, २. पीत, ३. नीला, ४. लाल, ५. काला श्रोत्र के ३ विषय - १. जीव शब्द, २. अजीव शब्द. ३ मिश्र शब्द
इस प्रकार यह पांचो इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को ग्रहण करती हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि कोई भी इन्द्रिय किसी दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं करती । जैसे - कान देख नहीं सकते, आंखें सुन नहीं सकती आगम वचन - सुणेइ त्तिसुअं
- नन्दी सूत्र, २४ (जिसको सुना जावे वह श्रुत (भावश्रुत) है । ) मन का विषय - . श्रुतमनिन्द्रियस्य ।२२।
श्रुत (भावश्रुत) मन का विषय है ।
विवेचन - श्रुत शब्द यहां केवल 'सुनने के लिए नहीं प्रयुक्त हुआ है । सुनना काम तो श्रोत्र अथवा कर्ण इन्द्रिय का है ।
यहां 'श्रुत' का अभिप्राय है श्रुतज्ञान ।
श्रुतज्ञान के प्रसंग में पहले अंगप्रविष्ट अंगबाह्य आदि की चर्चा आ चुकी है, उसी भावश्रुत से यहां अभिप्राय है ।
उदाहरण के लिए 'धर्म' शब्द कानों में पडा, अब धर्म के जितने भी अर्थ और रूप हैं, वे एकदम मस्तिष्क में आ गये; श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, गृहस्थधर्म, मानवधर्म, ग्राम धर्म, आदि-आदि । यह सम्पूर्ण मनन क्रिया मन के द्वारा हुई। इसी अपेक्षा से श्रुत को मन का विषय बताया है ।
दूसरी बात यह है कि इन्द्रियों का ज्ञान तो परिमित है, सीमित है, फिर उसमें अवरोध भी आ सकते हैं; जैसे-अमुक दूरी से कम या अधिक दूर की वस्तुएँ आँख नहीं देख सकतीं अथवा कान अमुक फ्रीक्वेन्सी सीमा से कम या अधिक के शब्द नहीं सुन सकते-अति मन्द और अत्यधिक उच्चशब्द को ग्रहण नही कर सकते; फिर बीच में परदा आदि आ गया तो भी आँखों को दिखाई देना बन्द हो जाता है या बीच में कोई दूसरी लहर (wave) आ गई तो शब्द की गति रुक जाती है ।
किन्तु मन की गति निर्बाध है, असीमित है, अपरिमित है । अमरीका शब्द सुनते ही मन वहाँके- अमरीका के बाजारों में विचरण करने लगता ह। इन सभी बातों की अपेक्षा से श्रुत को मन का विषय बताया है ।
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