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१०० तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र १६-१९
निर्वृत्ति और उपकरण - दोनों के हो दो-दो भेद होते हैं - (१) आन्तरिक और (२) बाह्य।
उदाहरण के लिए नेत्र इन्द्रिय को लें । चक्षु इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से आत्म-प्रदेशों का चक्षुइन्द्रिय के आकार में बनना, यह आन्तरिक निर्वृत्ति है और उस योग्य (देखने योग्य) पुद्गलों की रचना बाह्य निर्वृत्ति ह। आँख में जो काली पुतली (Retina) तथा इसके चारों ओर सफेदी है वह आन्तरिक उपकरण है तथा पलक, बरौनी आदि बाह्य उपकरण है ।
इसी प्रकार आन्तरिक बाह्य निर्वृत्ति तथा उपकरण - चारों भेदों को अन्य इन्द्रियों में भी घटित कर लेना चाहिए । आगम वचन -
गोयमा ! पंचविहा इन्दियलद्धी पण्णत्ता गोयमा ! पंचविहा इंदियउवगद्धा पण्णत्ता
प्रज्ञापना, इद्रियपद १५, उ. २ (गौतम ! इन्द्रियलब्धि पाँच प्रकार की बतायी गयी है ।
गौतम ! इन्द्रिय उपयोग पाँच प्रकार का बताया गया है ।) . भावेन्द्रियो के भेद -
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । १८। उपयोग : स्पर्शादिषु । १९ ।
भावेन्द्रिय के दो भेद हैं - (१) लब्धि और (२) उपयोग; तथा उपयोग स्पर्श आदि विषयों में होता है ।
विवेचन - लब्धि का अभिप्राय शक्ति-प्राप्ति से है । स्पर्शन आदि इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से जीव की जो शक्ति अनावृत होती है, वह लब्धि है तथा उस लब्धि अर्थात् प्राप्त शक्ति/क्षमता द्वारा जो जानने की क्रिया होती है, वह उपयोग कहलाता है ।
निर्वृत्ति और उपकरण के दो-दो भेदों के समान लब्धि और उपयोग के भी आन्तरिक तथा बाह्य की अपेक्षा से दो-दो प्रकार होते हैं ।
उपयोग अथवा जानने की क्रिया स्पर्श आदि में प्रवृत्त होती है । यह प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है - (१) जानना, (२) वेदन अथवा अनुभव करना। अनुभव सुखःदुःख आदि का होता है और जानना पुस्तक आदि द्रव्यों का।
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