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११४ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ३५-३६ आगम वचन -
दोण्हं उववाए पण्णते, तं जहादेवाणं चेव नेरइयाणं चेव । - स्थानांग स्थान २, उ. ३, सूत्र ८५ (उपपात जन्म दो का होता है
(१) देवों का और २) नारकियों का) उपपात जन्म वाले जीव ।
देवनारकाणमुपपाद : ३५। देवों और नारकियों का उपपाद जन्म होता है ।
विवेचन - उपपात जन्म में माता-पिता की कोई आवश्यकता नहीं होती । जीव स्वयं ही उत्पत्तिस्थान के वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करके अपना शरीर निर्मित कर लेता है ।
उपपात जन्म का एक निश्चित उत्पत्ति स्थान होता है, जैसे-स्वर्ग में उपपात पुष्प शैया तथा नरक में कुम्भी आदि । यही उपपात जन्म की विशेषता है- वैक्रियशरीर और निश्चित उत्पत्ति स्थान । वैक्रिय शरीर औदारिक शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म होता है । आगम वचन - संमुच्छिमा य. .. (इत्यादि) ।
प्रज्ञापना, पद १; सूत्र कृतांग, श्रु. २, अ. ३. (गर्भ तथा उपपात जन्म वालों के अतिरिक्त शेष जीव) संमूर्छिम होते हैं ।) . शेष जीव
शेषाणां सम्मूर्छनम् ।३६।। (शेष जीव सम्मूर्छन होते हैं ।)
विवेचन - सम्मूर्च्छन का अभिप्राय है, जिन जीवों का सम्मूर्छिम जन्म हुआ हो । गर्भज (गर्भ से जन्म ग्रहण करने वाले ) और उपपात (देव तथा नारक जीव) जन्म वालों के अतिरिक्त सभी संसारी जीव सम्मूछन हैं
एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय वाले तक सभी जीव सम्मूर्छिम होते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य भी सम्मूच्छिम होत ह।
सम्मूर्छिम जीवों के उत्पत्तिस्थान शरीर के मल (अशुचि) हैं, जैसे - श्लेष्म, मल, मूत्र, वीर्य, कूड़े कचरे के ढेर आदि ।
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