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१०६ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र २५
यह समझने की बात है कि जैन आगमों में संज्ञा-चेतना या बोध के दो स्तर माने हैं- एक सामान्य संज्ञा-अविकसित या अल्पविकसित चेतना तथा दूसरी विशेष संज्ञा-(ज्ञान संज्ञा) विकसित या विकासमान चेतना ।
चेतनारूप सामान्य संज्ञा तो प्रत्येक प्राणी में होती है । प्रज्ञापना सूत्र (संज्ञापद) में इस प्रकार की १० (दस) संज्ञा बताई हैं जैसे - (१) आहार संज्ञा, (२) भयसंज्ञा, (३) मैथुनसंज्ञा, (४) परिग्रहसंज्ञा, (५-८) क्रोध मानमाया लोभ-संज्ञा, (९) ओघसंज्ञा, (१०) लोभसंज्ञा ।।
आचारांग वृत्ति मे इनके अतिरिक्त छह संज्ञाएँ और' गिनाई गई हैं - सुख-दुःख-शोक-मोह-विचिकित्सा और धर्मसंज्ञा ।'
इनमें जो अनुभवसंज्ञा (सामान्यबोध) है वह एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों में रहती हैं । किन्तु ज्ञानसंज्ञा - विचार विमर्श रुप चेतना, सिर्फ समनस्क जीवों में ही होती है । अतः यहाँ विचार विमर्श रूप चेतना-संज्ञा को लक्ष्य कर कहा गया है- जिन जीवों में यह चेतनां होती है, वे संज्ञा होते हैं ।
नन्दीसूत्र में इनके अतिरिक्त (१) दीर्घकालिकी, (२) हेतूपदेशिकी और (३) दृष्टिवादोपदेशिकी-ये संज्ञाएँ और कही गई हैं । यह श्रुत ज्ञानाश्रित ह। यही संज्ञाएँ ईहा, अपोह, वीमंसा आदि की कारण होती हैं और इन्हीं की अपेक्षा जीव को संज्ञी अथवा समनस्क कहा गया है । इन संज्ञाओं को संप्रधारण संज्ञा ही कहा जाता है ।
__भाव यह है कि जिन जीवों में ईहा, अपोह, चिन्तन, विमर्श आदि की शक्ति होती है, वे जीव मनसहित अथवा मन वाले हैं ।
इससे यह अर्थ भी फलित होता है कि जिनमें ईहा आदि की क्षमता अथवा योग्यता नहीं, वे सभीजीव मनरहित हैं । आगम वचन - कम्मासरीरकायप्पओगे ।
प्रज्ञापना पद १६ ((विग्रह गति में) कार्मण शरीर के काय प्रयोग होता है ।) गोयमा! अणुसेढी गती पवत्तति नो विसेढी गती पवत्तती... ...एवं जाव वेमाणियाणं. भगवती, श. २५, उ. ३, सू. ७३०
१.
आहार-भय-परिग्गह-मेहुण-सुख-दुक्ख-मोह वितिगिच्छा । कोह-माण-माय-लोहे सोगे-लोगे य धम्मोहे ।
- आचा. नि. ३९
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