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११० तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ३२ करता है अर्थात् आहार योग्य सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करके इन्हें आहार रूप में परिणत करता है, तदुपरान्त उसकी शरीर आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण होती ह। आगम वचन -
पंचिंदिय तिरिक्खाओ, दुविहा ते वियाहिया ।। सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ गब्भवक्कन्तिया तहा ।
उत्तरा. ३६/१७० (तिर्यंच जीवों के (जन्म की अपेक्षा) दो भेद हैं - (१) सम्मूर्छिम और (२) गर्भज ।
मणुया दुविहभेया उ ते मे कित्तियओ सुण ! समुच्छिमा य मणुया गब्भवक्कन्तिया तहा ॥
उत्तरा. ३६/१९५ (मनुष्य दो प्रकार के हैं - (१) संम्मूर्छिम और (२) गर्भात्पन्न । अंडया पोतया जराउया...सम्मुच्छिया...उववाइया ।
. दशवैकालिक, अध्याय ४, अंडज, पोतज, जरायुज (ये सभी गर्भज हैं ) सम्मूर्च्छन और औपपातिक जन्म होते हैं।) जन्म के प्रकार -
सम्मूर्छनगर्भोपपाता जन्म ।३२।
जन्म (नविन शरीर धारण करने) के तीन प्रकार हैं- (१) सम्मूर्छन (२) गर्भ और (३) उपपात ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र से पहले छह, सूत्रों में विग्रहगति सम्बन्धी विचरणा की थी । यहाँ जन्म के प्रकार बताये हैं ।
(१) सम्मूर्छनजन्म - माता-पिता के रज-वीर्य के संयोग बिना ही जब जीव अपने उत्पत्ति स्थल के सभी ओर विद्यमान शरीरयोग्य औदारिक पुद्गलों को ग्रहण करके अपने शरीर का निर्माण करता है, ऐसा जन्म "सम्मूर्छन जन्म' कहा जाता है । एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीवों का सम्मूर्च्छन जन्म होता है । ऐसे जीवों के उत्तर भेद अनेक हैं ।
(२) गर्भजजन्म - स्त्री की योनि में विद्यमान शुक्र-शोणित (वीर्य और रज) के औदारिक पुद्गलों को जीव जब अपने शरीर रूप परिणत करता है तब उसे 'गर्भज जन्म' कहा जाता है ।
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