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जीव-विचारणा ८५ से तं उदइए ।
- अनुयोगद्वार सूत्र, २३४, २३७ (औदयिक (भाव) दो प्रकार का होता है, यथा (१) औदयिक और (२) उदयनिष्पन्न ।
नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव.. क्रोध, कषायी से लगाकर (मान कषायी, माया कषायी) लोभ कषायी, स्त्रीवेद वाले, पुरुषवेद वाले, नपुंसकवेद वाले, कृष्णलेश्या वाले ले लगाकर, (नील, कापोत, तेजो, पद्म लेश्या वाले )शुक्ललेश्यावाले तक, मिथ्यादृष्टि.. अविरत...अज्ञानी... असिद्ध ।
यह औदयिक भाव का वर्णन किया गया है । औदयिक भावों के भेद -
गतिक षायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासं यताऽसिद्धले श्याश्चतुश्चतु स्त्र्येकै कै के कषड्भेदाः ।६।
गति- (१. मनुष्य २. देव. ३. मरक ४. तिर्यंच) कषाय - (५. क्रोध, ६. मान. ७. माया ८. लोभ) लिंग - (९. स्त्रीवेद, १०. पुरूषवेद, ११. नपुंसकवेद) (१२) मिथ्यादर्शन, (१३) अज्ञान (१४) असंयम (१५) असिद्धत्व, लेश्या - (१६) कृष्ण (१७) भील (१८) कापोत (१९) तेज (२०) पद्म (२१) शुक्ल - यह २१ औदयिक भाव है ।
विवेचन - यह सभी भाव कर्म के उदय से होते हैं, इसलिए औदयिक कहलते हैं । उदाहरण के लिए मनुष्यगति कर्म के उदय से मानव भव प्राप्त होता है । इसी प्रकार अन्य सभी भावों के विषय में भी समझ लेना चाहिए
यहाँ एक शंका हो सकती है कि लेश्या नाम का तो कोई कर्म है ही नहीं, फिर लेश्यारूप परिणाम कैसे होते हैं तथा इन्हें औदयिक भावों में क्यों गिना गया ? इसका क्या कारण है ?
इस शंका के समाधान के लिए पहले लेश्या का स्वरूप समझ लेना जरूरी है । योग और कषाय के निमित्त से आत्मा की जो भाव परिणति - विचारधारा बनती है वह 'भाव लेश्या' कहलाती है । सामान्य रूप से लेश्या की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है । जैसा कि कहा गया है - जोगपउत्तीलेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होई ।
-गो. जी. ४८६ अतः लेश्या रूप भावों का कारण पर्याप्ति नाम कर्म तथा कषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म है । इसलिए लेश्या भी औदयिक भाव है ।
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