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८४ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ५
दर्शन - (८) चक्षुदर्शन (९) अचक्षुदर्शन (१०) अवधिदर्शन ।
दानादि - (११) दान (१२) लाभ (१३) भोग (१४) उपभोग (१५) वीर्य ।
सम्यक्त्व - (१६) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व (१७) चारित्र और (१८) संयमासंयम (देशसंयम) . यह १८ क्षायोपशमिक भाव हैं ।
विवेचन - क्षायोपशमिक भावों की उपलब्धि कर्मों के क्षयोपशम से होती हैं । क्षयोपशम में क्षय और उपशम दोनों ही हैं, अतः जीव की भाव धारा मिश्रित अथवा शुद्धाशुद्ध होती है । अधिक अंश में शुद्धता और कम अंश में अशुद्धता ।
. उदाहरणार्थ : धतूरे की बीजों को खूब अच्छी तरह शुद्ध किया जाय तो उनकी मारक, मूर्च्छित करने की शक्ति काफी सीमा तक समाप्त हो जाती है; किन्तु फिर भी कुछ शेष रह जाती है, लेकिन यह विशेष कार्यकारी नहीं होती, इसका अधिक प्रभाव नहीं पड़ता ।
इसी तरह क्षायोपशमिक भाववाले जीव को उसके प्रतिबन्धक तथा प्रतिपक्षी कर्म विशेष हानि नहीं पहुंचा सकते ।
मतिज्ञान से लेकर सम्यक्त्व तक - इन सोलह भावों से पहले क्षायोपशमिक विशेषण लगा लिया जाता है । इस विशेषण से ही इनकी विशेषता प्रकट हो जाती है ।
(ज्ञानावरण के क्षयोपशम से चार ज्ञान और तीन अज्ञान होते है किन्तु मिथ्यात्व-मिश्रित होने की अपेक्षा से इन तीनों को अज्ञान कहा जाता है । दर्शनावरण और अन्तराय के क्षयोपशम से ३ दर्शन तथा ५ दानादि लब्धियाँ प्राप्त होती हैं और दर्शन-सप्तक के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है ।
प्रत्याख्यानावरण कषायों के क्षयोपशम से चारित्र और अप्रत्याख्यानावरण के क्षयोपशम से संयमासंयम अथवा देशचारित्र की उपलब्धि होती है। देशचारित्र श्रावक के बारह व्रत के रूप है । आगम वचन -
उदइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-उदए य उदयनिप्फण्णे य ।
णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे कोहकसाई जाव लोहकसाई इत्थीवेवए पुरिसवेदए नपुंसगवेदए कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे मिच्छादिट्ठी अविरए... अण्णाणी... असिद्धे...
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