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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ५९ ते चेव विउलमई, अब्भहियतराए ............. विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ ..............
- नन्दी सूत्र, सूत्र ३७ मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का है - (१) ऋजुमति और (२) विपुलमति
ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान अनन्तप्रदेश वाले अनन्तस्कन्धों को जानता/ देखता है ।
___ विपुलमति भी उन सबको जानता/देखता है; किन्तु यह उस (ऋजुमति की अपेक्षा) से अधिक बड़े, विपुल (अधिक परिमाण में), अधिक विशुद्ध रूप में तथा अधिक निर्मल देखता/जानता है । ) मनःपर्यवज्ञान के भेद
ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः ।२४। विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष : ।२५। ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मनःपर्यांय ज्ञान दो प्रकार का ह।
ऋजुमति से विपुलमति मनःपर्याय ज्ञान विशुद्धि तथा अप्रतिपातिकता के कारण विशेष हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में मनःपर्यायज्ञान के भेद तथा विपुलमति की ऋजुमति की अपेक्षा विशेषताएँ बताई गई हैं ।
मनःपर्यायज्ञान की उत्पत्ति और लक्षण - मनःपर्यायज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव में यह ज्ञान प्रगट होता है । किन्तु इसकी उत्पत्ति के लिए दो बातें आवश्यक है - प्रथमतः जीव सम्यक्त्वी हो और दूसरे संयमी हो । यह ज्ञान मिथ्यात्वी तथा असंयमी को प्राप्त नहीं होता ।
सीधे शब्दों में मन-वचन-काया की सरलतायुक्त; पर के मन में रहे हुए भावों/मन के विचारों के परिवर्तन के कारण पलटती पर्यायों को प्रत्यक्ष जानता है, वह ऋजुमति मनःपर्याय ज्ञान है ।
विपुलति सरल और वक्र दोनों प्रकार की पर्यायों को जानता है ।
साथ ही. ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान अनन्त प्रदेश वाले अनन्तस्कन्धों को; मध्यलोक-अढाई द्वीप, ज्योतिष्क मंडल से ऊपर, क्षुल्लक प्रतर से नीचे तक के क्षेत्र को, पल्योपम के असंख्यातवें भाग भूत, भविष्य और वर्तमान को; तथा अनन्त भावों को प्रत्यक्ष जानता है ।
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