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जीव-विचारणा
८१ औपशमिक सम्यक्त्व में जिस प्रकार दर्शनसप्तक का उपशम हो जाता हैं; इसी प्रकार उपशमचारित्र में भी चारित्रमोहनीय अथवा कषाय मोहनीय (अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया लोभ) का उपशम हो जाता है ।
इन कषायों के उपशमन होने से, दब जाने से आत्मा के परिणाम बहुत निर्मल और स्वच्छ हो जाते हैं, उस जीव को अपने शुद्धात्मा का उस समय रसास्वादन होता है, श्रेणी चढ़ने पर वह शुक्लध्यान पर भी पहुंच जाता ह।
किन्तु इतना सब होते हुए भी वह जीव वीतराग केवली नहीं बन पाता, कषायों का उदय होते ही पुनः उसके परिणाम मलिन हो जाते हैं ।
फिर भी ये सम्यक्त्व और चारित्र आत्मा के निज भाव तो हैं ही । इसी अपेक्षा से प्रस्तुत सूत्र में इनका उल्लेख हुआ है । आगम वचन -
खइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--
खइए अ खयनिप्फण्णे अ । ... खीणके वलणाणावरणे.. खीणके वल- दंसणावरणे,
खीणदंसणमोहणिज्जे खीणचरित्तमोहणिज्जे... ____खीणदाणंतराए खीणलाभंतराए खीणभोगन्तराए, खीणउवभोगंतराए खीणवीरियंतराए.... से तं खइए ।
अनुयोगद्वार, सूत्र ४२-४४ (क्षायिक (भाव) दो प्रकार का कहा गया है- (१) क्षायिक और (२) क्षयनिष्पन्न ।
केवलज्ञानावरण को नष्ट करने वाले ... केवलदर्शनावरण को नष्ट करनेवाले, दर्शनमोहनीय को नष्ट करने वाले, चारित्रमोहनीय को नष्ट करने वाले .... दानांतराय को नष्ट करने वाले, लाभांतराय को नष्ट करने वाले, भोगान्तराय को नष्ट करने वाले, उपभोगान्तराय को नष्ट करने वाले, वीर्यान्तराय को नष्ट करने वाले, इस प्रकार क्षायिक भाव का वर्णन किया गया । )
विशेष - मूल सूत्र में क्षायिक और क्षयनिष्पन्न भावों के अन्तर्गत आठों कर्मो (उत्तर प्रकृतियों सहित). के क्षय का वर्णन किया गया है ।
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