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जीव-विचारणा
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विवेचन प्रस्तुत सूत्र में कथित पाँचों भाव जीव के अपने ही निजतत्त्व हैं । भाव का अर्थ हैं, आत्मा की अवस्था या अन्तःकरण की परिणति । इसमें पाँच प्रकार से पाँच भाव का वर्णन है ।
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(१) औपशमिक भाव जिस प्रकार मलिन जल में निर्मली = फिटकरी आदि पदार्थ डालने से उसकी मलिनता दब जाती है, नीचे बैठ जाती है और जल स्वच्छ दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार कर्मों का उपशम (उदय न होने से) जीव के परिणामों में जो विशुद्धि हो जाती है, वे औपशमिक भाव हैं ।
(२) क्षायिक भाव जीव के यह भाव कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से होते हैं । कर्मों के क्षय से जीव के परिणाम अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल होते हैं, साथ ही यह सदाकाल के लिए वैसे ही बने रहते हैं, क्योंकि प्रतिपक्षी कर्म का सम्पूर्ण क्षय अथवा विनाश हो गया तो फिर मलिनता कैसे आवेगी ? (३) क्षायोपशमिक भाव यह कर्म के क्षयोपशम से होते हैं । 'क्षयोपशम' शब्द 'क्षय' और 'उपशम' इन दो शब्दों की सन्धि से बना है । इसका शास्त्रीय लक्षण इस प्रकार है वर्तमानकाल की अपेक्षा सर्वघाती, कर्मों, दलिकों का उद्याभावी क्षय ( झड़ जाना) तथा भविष्यकाल की अपेक्षा सर्वघाती कर्म दलिकों का सवस्थारूप उपशम (राख से ढकी आग की भाँति सत्ता तो में रहें किन्तु उनका उदयन हो) ।
इसकी विशेषता यह है कि जीव के परिणामों की शुद्धाशुद्ध दशा रहती है यानी कुछ मलिनता और अधिकांश में स्वच्छता, एक शब्द में मिश्रित दशा । इसीलिए सूत्र में क्षायोपशमिक भाव के लिए मिश्र शब्द दिया गया है । 'मिश्र' शब्द भावों की दशां का स्पष्ट वर्णन करता है ।
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(४) औदयिक भाव द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के निमित्त से कर्म जो फल जीव को वेदन ( अनुभव ) कराता है, वह उदय है और कर्मोंदय के निमित्त से होनेवाले जीव का भाव 'औदयिक भाव' कहलाता है ।
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(५) पारिणामिक भाव जीव के जिन भावों में कर्म की बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं होती, जीव की जो स्वतः परिणति होती है व पारिणामिक भाव कहलाते हैं ।
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ये सभी भाव जीव के जीवत्व गुण (जिस गुण के कारण जीव जीवित रहता है) की अपेक्षा से बताये गये हैं । यद्यपि जीव में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनेक गुण हैं; किन्तु जीवत्व गुण उसका असाधारण गुण हैं
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