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तत्त्वार्थ सूत्र
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आदि कोई क्रिया नहीं करनी पड़ती, गुणों का अर्जन नहीं करना पड़ता; देवायु के बंध के साथ ही यह क्षयोपशम स्वयमेव ही हो जाता है ।
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किन्तु नरकगति के साथ विपरीत स्थिति है । इसके बंध के समय कषाय, लेश्या, इन्द्रियविषय, रौद्रध्यान की धाराएँ इतनी प्रबल होती हैं. कि वे भी अवधिज्ञानावरण कर्म को क्षीण / क्षयोपशमित करने का निमित्त बन जाती हैं; अतः इस अपेक्षा से नारक जीवों को भी अवधिज्ञान की उपलब्धि जन्म लेते ही हो जाती है । किन्तु उनका अवधिज्ञान अल्प तथा अधिकांशत : (सम्यक्त्वी जीवों के अलावा) विभंग अथवा कुअवधिज्ञान होता है ।
क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मनुष्यों तथा तिर्यंचों को व्रत - नियम आदि के आराधन-निमित्त से गुणों के अर्जन द्वारा होता हैं । उसके छह भेद हैं । (१) अनुगामिक - जो जीव के अन्य क्षेत्र में जाने पर अथवा दूसरे जन्म में भी साथ चलता है ।
जो उत्पन्न होने के
(२) अननुगामिक - ऐसा अवधिज्ञान जीव के साथ नहीं चलता । (३) वर्द्धमान बाद बढ़ता रहता है । (४) हायमान (५) प्रतिपातिक
जो उत्पन्न होने के जो प्राप्त होने के
बाद घटता रहता है । कुछ समय बाद एकदम लुप्त
हो जाता है ।
(६) अप्रतिपातिक
आगम वचन
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होता ।
यह छहों भेद क्षयोपशम की विभिन्नता और विचित्रता के परिणाम - स्वरूप ही होते हैं; जैसे - अवधिज्ञान के उत्पन्न होने के बाद शुभधाराओं का प्रभाव बढ़ा, अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम अधिक हो गया तो अवधि ज्ञान की 'वर्द्धमान' दशा सामने आ गई और यदि विषय कषायों के आवेगों से क्षयोपशम में न्यूनता आई तो 'हायमान' दशा हो गई।
इसी प्रकार अन्य चारों भेदों के बारे में भी समझ लेना चाहिए ।
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यह अवधिज्ञान होने के बाद कभी लुप्त नहीं
मणपज्जवणाणे दुविहे पण्णत्ते उज्जुमति चेव विउलमति चेव ।
- स्थानांग स्थान २, उ. १, सूत्र ७१
उज्जुमई णं अनंते अनंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ
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