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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ७५ सप्तभंगी
स्याद्वाद जैनदर्शन की एक अन्यतम विशेषता है । स्याद्वाद के अभाव में जैनदर्शन की कल्पना भी कठिन हैं | एक आचार्य ने जैन धर्म का लक्षण ही यह दिया है -
स्याद्वादो वर्तते यस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं कञ्चित्, जैनधर्मः स उच्यते ॥
स्याद्वाद का दूसरा नाम अनेकान्तवाद भी है । प्रश्नों का उत्तर देने की भगवान महावीर की प्रणाली यही रही है । उदाहरणार्थ - गौतम स्वामी ने जब भगवान से जीव की शाश्वतता-अशाश्वतता के विषय में जिज्ञासा की तो भगवान ने फरमाया -
गौतम ! जीव स्यात् (कथंचित्-किसी अपेक्षा से) शाश्वत है और स्यात् (किसी अपेक्षा से) अशाश्वत हैं ।
आगमों का यही 'स्यात' (कथंचित्-किसी अपेक्षा से) शब्द आगे चलकर जैन तर्कशास्त्र का मूलाधार बन गया है । जैनन्याय में इसका खुलकर प्रयोग हुआ- वाद-विवाद में भी और बस्तु का स्वरूप समझने में भी ।
दार्शनिक युग में आते-आते यह स्याद्वाद सप्तभंगी के रूप में विकसित हो गया ।
संप्तभंगी का अर्थ हैं - सात प्रकार के भंग -विकल्प-वाक्य विन्यासबोलने और उत्तर-प्रत्युत्तर की विधि ।
वस्तुगत अनन्तधर्मों (गुणों-पर्यायों) में से किसी एक के विधिनिषेद, उभयात्मक तथा अवक्तव्य - अविरोधात्मक कथन के लिए सप्तभंगी बहुत ही महत्वपूर्ण है । सात भंगों का संक्षिप्त स्वरूप-विवेचन यह है -
(१) स्यादस्ति-वस्तु स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा है। (२) स्यानास्ति-वस्तु पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा नहीं ह।
उदाहरणार्थ-घड़ा मिट्टी का है, रसोईघर में स्थित हैं, वर्तमान काल में है और अपने भाव में हैं, यह स्यादस्ति हैं । किन्तु वही घड़ा चाँदी का नहीं हैं, अन्य स्थान, यथा-पर्वत पर नहीं हैं, भूतकाल में नही था । अन्य भाव से नही है, यह स्यान्नस्ति हैं ।
इस विधि-निषेधात्मक कथन से वस्तु का ज्ञान निश्चित रुप से होता ह।
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