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४६ तत्त्वार्थ सूत्र "प्रमाण' शब्द को द्विवचन में रखकर यह धोतित किया गया है कि वह प्रमाण दो प्रकार का है - (१) परोक्ष और (२) प्रत्यक्ष) ।
प्रमाण का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है. - प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणं- अर्थात् जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाय वह प्रमाण है । प्रमाण द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का भली भांति ज्ञान प्राप्त किया जाता है ।
'अक्ष' शब्द का एक अर्थ आत्मा होता है । मति, श्रुत, अवधि आदि ज्ञानों के होने का आधार तो आत्मा और उस उस कर्म का क्षयोपशम है ही किन्तु जिस ज्ञान के होने में इन्द्रिय-मन आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता पड़ती है, उन्हें परोक्ष (परः+अक्ष=आत्मा के सिवाय पर ही सहायता से प्राप्त) ज्ञान कहा गया है । ऐसे ज्ञान मति और श्रुतज्ञान दो हैं ।
जो ज्ञान इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना ही सीधे आत्मा से (प्रति+अक्ष) होते हैं वे प्रत्यक्ष कहलाते हैं । अवधि, मनःपर्यव और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, क्योंकि ये पर-निरपेक्ष हैं ।
ज्ञायक शक्ति की व्याप्ति की अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं । देश का अभिप्राय अंश हैं, अर्थात् ये ज्ञान वस्तु को एक सीमामर्यादा के अन्दर ही जानते हैं ।
किन्तु केवलज्ञान सर्व प्रत्यक्ष हैं । वह सम्पूर्ण पदार्थों को और उनके संपूर्ण भावों को प्रत्यक्ष जानता है ।
नंदीसूत्र (सूत्र ३,४,५) में लोक व्यवहार और परमार्थ की अपेक्षा प्रत्यक्ष के दो भेद बताये गये हैं - (१) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष और (२) नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान तो है ही मन द्वारा होने वाला ज्ञानभी इसी में गर्भित हैं ।
नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष में 'नो' निषेध का सूचक है । इसका अभिप्राय है जिसमें इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित न हो ।
_इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से अभिप्राय मति; श्रुत ज्ञान से है और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष अवधि, मनःपर्यव, केवलज्ञान के लिये प्रयुक्त हुआ है ।
लोक व्यवहार की दृष्टि से इन्द्रियप्रत्यक्ष को 'सांव्याहारिक प्रत्यक्ष' भी कहा गया है; क्योंकि सामान्यजन अपनी इन्द्रियों से प्रत्यक्षप्राप्त ज्ञान को परोक्ष अथवा अप्रमाण स्वीकार करने में हिचकिचाता है । आंखों से दीखने वाली वस्तु, कानों से सुनने वाली वार्ता आदि को वह प्रत्यक्ष ही समझता है ।
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