________________
५२ तत्त्वार्थ सूत्र
व्यंजनावग्रह चार प्रकार का है - (१) श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजन अवग्रह, (२) घ्राणेन्द्रिय व्यंजन अवग्रह, (३) रसनेन्द्रिय व्यंजन अवग्रह और (४.) स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजन अवग्रह ।
अर्थावग्रह छह प्रकार का है - (१) श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह आदि पांच तथा छठा मन का अवग्रह । सामान्यापेक्षा अवग्रह आदि के विषय एवं भेद -
अर्थस्य ।१७। व्यंजनस्यावग्रह : ।१८। न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ।१९।
(अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा-यह चारों ) अर्थ (वस्तु के प्रगट रूप) को ग्रहण करते हैं ।
व्यंजन अर्थात् अप्रकटरूप पदार्थों का केवल अवग्रह ही होता है ।
(उस व्यंजन-अप्रकट रूप पदार्थ का) नेत्र-इन्द्रिय और मन से अवग्रह मतिज्ञान नहीं होता है ।
विवेचन - प्रस्तुत तीनों सूत्रों में अथविग्रह और व्यंजनावग्रह की विशेषताएं बताई गई हैं ।
वस्तु अथवा पदार्थ दो प्रकार के होते हैं - (१२) व्यक्त और (२) अव्यक्त । इन्हें प्रकट अथवा अप्रकट भी कह सकते हैं । यहाँ 'अर्थ' शब्द वस्तु के व्यक्त रूप के लिए प्रयक्त हुआ है और व्यंजन अव्यक्त रूप के लिए।
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चारों वस्तु के प्रकट रूप को ग्रहण करते हैं; तथा अव्यक्त अथवा व्यंजन का केवल अवग्रह रूप ज्ञान ही होता है। इसका कारण यह है कि चक्षु इन्द्रिय और मन अप्राप्यकारी को ही ग्रहण करते हैं । अन्य चारो इन्द्रियाँ स्पृष्ट को ग्रहण करती है । जैसा कि आचारांग नियुक्ति गाथा ५ में बताया हैं -
पुढें सुणोदि सदं अपुढे पुण पस्सदे रूवं । फासं रसं च गंधे बद्धं पुढें वियाणादि |
शब्द स्पृष्ट (स्पर्शित होने पर) सुना जाता है, इसी प्रकार स्पर्श, रस और गंध का अनुभव भी बद्ध अथवा स्पृष्ट होने पर ही होता है; जब कि चक्षु इन्द्रिय अस्पृष्ट को ही ग्रहण करती है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org