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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ४७ अवधि, मनःपर्यव, केवलज्ञान जिन्हें इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा नहीं होती, वे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहे गये हैं ।
यह दोनों भेद व्यवहार की दृष्टि से हैं, किन्तु वास्तव में तो प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही भेद हैं । आगम वाचन -
ईहा-अपोह-वीमंसा-मग्गणा य गवेसणा । सन्ना सई मई पन्ना सव्वं आभिणिबोहि ॥
- नन्दीसूत्र मतिज्ञान प्रकरण गाथा ८० (ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञायह सब आभिनिबोधिक ज्ञान ही है ।) मतिज्ञान के अन्य नाम - मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।१३।
मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता अभिनिबोध - यह सभी मतिज्ञान के अन्य नाम हैं, इनके अर्थ (अभिप्राय) में कोई अन्तर नहीं है ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मतिज्ञान के अन्य नामो का सूचन करके कहा गया है कि इनके अर्थ में किसी प्रकार का भेद नहीं है ।
यहां 'अर्थान्तर' शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । क्योंकि व्युत्पत्ति, निरुक्त, धातु आदि तथा शब्द आदि नयों की अपेक्षा प्रत्येक शब्द में निहित वाच्यार्थ में कुछ न कुछ भेद तो होता ही है, इसी अपेक्षा से पर्यायवाची शब्दों के अर्थों में भी अन्तर होता है। किन्तु यहां 'अर्थान्तर' शब्द द्वारा इन सभी अर्थभेदों का निरसन करके, एकार्थता का सूचन किया गया है । फिर भी शब्दों के वाच्यार्थ की दृष्टि से इनका अर्थ इस प्रकार है -
(१) मति - मन और इन्द्रियों से वर्तमान कालवर्ती पदार्थो को जानना ।
(२) स्मृति - अनुभव में आये हुए पदार्थों का कालान्तर में पुनः ज्ञान पटल (स्मृति पटल ) पर आना ।
(३) संज्ञा - वर्तमान में किसी पदार्थ को देख अथवा जानकर 'यह वही है जो पहले देखा-जाना था' इस प्रकार जोड़ रूप ज्ञान होना । इसको 'प्रत्यभिज्ञा' अथवा 'प्रत्यभिज्ञान' (पहचान) भी कहा जाता है ।
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