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४८ तत्त्वार्थ सूत्र
(४) चिन्ता - किसी चिन्ह को देखकर 'वहां इस चिन्ह वाला भी होगा' इस प्रकार का चिन्तन; जैसे-धुंए को देखकर अग्नि का अनुमान करना । इसे ऊहा अथवा तर्क भी कहा जाता है ।
(५) अभिनिबोध - सम्मुख चिन्ह आदि देखकर उस चिन्ह वाले का निश्चय कर लेना । इस स्वार्थानुमान भी कहा जाता है । . - इनके अतिरिक्त प्रतिभा (Genius), उपलब्धि आदि सभी मति ज्ञान ही हैं । बुद्धि को गणना तो मतिज्ञान के ३४० भेदों में की ही गई है ।
आगम वचन - पच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं -इन्दियपञ्चक्खं नोइन्दियपचक्खंच ।
-अनुयोग द्वार, १४४ (प्रत्यक्ष दो प्रकार का है - (१) इन्द्रिप्रत्यक्ष और (२) अनिन्द्रियप्रत्यक्ष मतिज्ञान उत्पत्ति के कारण -
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । १४ । वह (मतिज्ञान) इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) के निमित्त से होता है
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मतिज्ञान उत्पन्न होने के निमित्त अथवा कारण बताये गये हैं । ये कारण हैं -इन्द्रिय और मन । किन्तु यह बाह्य कारण हैं । मतज्ञिान का अन्तरंग कारण हैं - मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र-यह पांच इन्द्रियां हैं, तथा छठा है मन जिसे अनिन्द्रिय (नोइन्द्रिय) शब्द से व्यक्त किया गया है ।
एक अपेक्षा से 'मन' को भी मतिज्ञान का अन्तरंग कारण माना जा सकता है । यह भेद दृश्य-अदृश्य की अपेक्षा से किया जा सकता है । क्योंकि इन्द्रियां तो दिखाई देती ही हैं किन्तु मन तो दृष्टि से ओझल रहता है । इसी अपेक्षा से मन को आन्तरिक करण और इन्द्रियों को बाह्य करण माना गया
आगम वचन -
सुयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं - उग्गहे, ईहा, अवाए, धारणा ।
-नन्दी सूत्र, सूत्र २७
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