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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ४१ तत्त्वों पर ऐसा जीव श्रद्धा नहीं करता । जिस प्रकार पित ज्वर वाले मनुष्य को मीठा रस अच्छा मालूम नहीं होता, उसी प्रकार उसे यथार्थ धर्म रुचि कर प्रतीत नहीं होता ।
(२) सास्वादन सम्यक्त्व - औपशमिक सम्यक्त्वी जीव जब अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने से सम्यक्त्व से पतित होता है, उस समय सास्वादन सम्यक्त्व होता है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति खीर खाकर वमन करे तो उसके मुंह में खीर का स्वाद आता है। इसी प्रकार इस गुणस्थान में भी जीव को सम्यक्त्व का स्वाद रहता है) इस अपेक्षा से इस गुणस्थान को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है ।
इस गुणस्थान का काल ६ आवलिका और ७ समय मात्र है, इसके बाद वृक्ष से गिरे हुए फल के समान निश्चित रूप से मिथ्यात्व गुणस्थान में पहुंच जाता है ।
(३) मिश्र गुणस्थान - इसका पूरा नाम सम्यकमिथ्यादृष्टि गुणस्थान हैं । इसमें जीव को सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिला-जुला स्वाद आता है । उसकी श्रद्धा में शुद्धता और अशुद्धता का मिश्रण होता है, अर्थात् उसके परिणाम मिश्र होते है । .
(४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान - इस गुणस्थान में जीव की श्रद्धा शुद्ध होती है, वह सर्वज्ञकथित तत्त्वों पर विश्वास करता है, सच्चे देव-गुरू-धर्म की आराधना करता है ।
(५) देशवरित गुणस्थान - इस गुणस्थान वाला आत्मा श्रावकव्रतों का पालन करता है । उसकी विरति आंशिक होती है ।
. (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान - यह गुणस्थान सिर्फ मनुष्यों को ही होता है तथा इसके आगे के गुणस्थान भी मनुष्यों को ही होते हैं । इस गुणस्थान का धारक मनुष्य पूर्ण रूप से पाप क्रियाओं को त्याग देता है, पाँचों पापों, पाँचो इन्द्रियों के विषयों से विरत हो जाता है । वह सकल संयमी श्रमण, साधु मुनि बन जाता है ।
(७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - इस गुणस्थान में ज्ञान आदि गुणों की और विशुद्धि हो जाती है, विकथा आदि प्रमाद नहीं रहते । साधुजी ज्ञानध्यान-तप. में लीन रहते हैं ।
(८) निवृत्तिबादर गुणस्थान - इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानारवरण और प्रत्याख्यानावरण इन चौक रूपी बादर कषाय की
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