________________
अध्याय १ : मोक्षमार्ग ३९ (६) अन्तर - एक जीव की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का विरहकाल कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट से कम समय) और अधिक से अधिक अपार्द्धपुद्गल परावर्तन जितना समय है तथा अनेक जीवों की अपेक्षा विचार किया जाय तो विरहकाल बिल्कुल भी नहीं होता है ।
विरह काल का अभिप्राय है सम्यक्त्व का अभाव; जब या जिस काल में जीव को सम्यक्त्व न हो ।
(७) भाव -(भाव का अभिप्राय है जीव के परिणाम | यह प्रमुख रूप से तीन है (१) क्षायिक, (२) क्षायोपशमिक, (३) औपशमिक । सम्यक्त्व भी इन्हीं तीन रूपों में पाया जाता है तथा इन तीन भावों से ही सम्यक्त्व की शुद्धता का ज्ञान किया जाता है । अतः भाव यहां सम्यग्दर्शन-शुद्धि की तरतमता द्योतित करता है ।
(८) अल्पबहुत्व - का अर्थ है न्यूनाधिकता, कम और अधिक होना। इस अपेक्षा से औपशमिक सम्यग्दर्शन सबसे कम, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन इससे असंख्यातगुणा और क्षायिक सम्यग्दर्शन अनन्तगुणा होता है। यह विचार सम्यक्त्वधारी जीवों की अपेक्षा से है ।
क्षायिक सम्यग्दर्शन अनन्तगुणा होने का कारण यह है कि यह जीव के साथ सिद्ध अवस्था में भी रहता है और सिद्ध जीव अनन्त है । दूसरे शब्दों में क्षायिक सम्यग्दर्शन शाश्वत हैं, एक बार होने के बाद सदा रहता
सूत्र ७ और ८ का हार्द जीव की अन्वेषणा है, अर्थात् जीव को कहाँकहाँ और किस-किस प्रकार खोजा जा सकता है । इसके लिए अनुयोगद्वार आदि आगमों में कई उपाय बतायें हैं और उन्ही का अनुसरण करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी इन दोनों सूत्रों में १४ उपाय बताये हैं -
___ (१) निर्देश, (२) स्वामित्व, (३) साधन, (४) अधिकरण, (५) स्थिति, (६) विधान, (७) सत्, (८) संख्या, (९) क्षेत्र, (१०) स्पर्शन, (११), काल, (१२) अन्तर, (१३) भाव, (१४) अल्पबहुत्व ।
सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने इन दो सूत्रों की टीका करते हुए मार्गणास्थान और गुणस्थानों की अपेक्षा से भी विचार किया है ।
मार्गणास्थान हैं भी जीवादि पदार्थों की अन्वेषणा अथवा खोज के लिए ही । जैसा कि प्रवचनसारोद्धार (द्वार २२४) में कहा गया है - जीवादीनां पदार्थानामन्वेषणं मार्गणा । अतः मार्गणा द्वारा विचार करना यहां प्रासंगिक होगा ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org