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तत्त्वार्थ सूत्र
(७) मोक्ष- समस्त कर्मों का आत्मा से सर्वथा पृथक हो जाना । इस सात तत्त्वों का ही इस ग्रंथ में विवेचन हुआ है ।
अजीव आदि तत्त्वों को जानने की उपयोगिता यहां कोई व्यक्ति प्रश्न उठा सकता है कि ग्रंथकार ने तो मोक्षमार्ग बताने की प्रतिज्ञा की है, जीव का लक्ष्य भी मुक्ति-प्राप्ति है फिर वह पुद्गल आदि अजीवं तत्त्व तथा आस्त्रव, बंध आदि की चर्चा में क्यों समय बर्बाद करें, सीधी अध्यात्म, साधना करके क्यों न मुक्ति प्राप्त कर ले ।
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इस प्रश्न का समाधान सम्यक्त्व के अमूढदृष्टि अंग से मिल जाता ह । अमूढदृष्टि का अभिप्राय है त्यागने योग्य, जानने योग्य और ग्रहण करने योग्य (हेय, ज्ञेय, उपादेय) का यथार्थ ज्ञान होना ।
(जब व्यक्ति हेय, ज्ञेय, उपादेय तत्त्वों को जानेगा ही नहीं तो ग्रहण और त्याग भी कैसे कर सकेगा? उसकी विवेक दृष्टि कैसे निर्मल होगी ? विवेक के बिना वह धर्म की आत्मा की साधना भी कैसे कर सकेगा ?
इसी दृष्टिकोण से इन तत्त्वों की उपयोगिता है विवेचन वर्णन का ?
आगम वचन
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जत्थ य जं. जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवें निरवसेसं । जत्थ वि अ न जाणेज्जा चउक्कगं निक्खिवं तत्थ ॥ आवस्यं चउविहं पण्णत्तं तं जहानामावस्सयं. ठवणावस्सयं, दव्वावस्सयं, भावावस्सयं । - अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र ८
जिसका ज्ञान हो उसे पूर्ण रूप से निक्षेप के रूप में रखे । किन्तु यदि किसी का ज्ञान न हो तो उसका भी निम्न चार प्रकार से वर्णन करे ।
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आवश्यक चार प्रकार के कहे गये हैं (१) नामावश्यक, (२) स्थापनावश्यक, (३) द्रव्यावश्यक, और (४) भावाश्यक ।
निक्षेपों के नाम
। यही हेतु है - इनके
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास : । ५ ।
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से इन सात तत्त्वों और सम्यग्दर्शनादि का न्यास अर्थात लोकव्यवहार होता है ।
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