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अध्याय १ : मोक्षमार्ग ३५
वचन के जितने प्रकार हैं, उतने ही प्रकार नयों के भी हैं । किन्तु प्रमुख नय दो हैं (२) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक ।
द्रव्यार्थिक नय द्रव्य को प्रमुख और पर्याय को गौण करके कथन करता है तथा पर्यायार्थिक नय के कथन में पर्याय की प्रमुखता तथा द्रव्य की गौणता होती हैं, यह इन दोनों में अन्तर हैं ।
इसके अतिरिक्त आध्यात्मिक ग्रन्थों में शुद्धनिश्चयनय, अशुद्धनिश्चय नय, सद्भूतनय, असद्भूतनय, उपचरितनय, अनुपचरितनय आदि और भी कई भेद बताये गये हैं ।
शुद्ध निश्चयनय, वस्तु को अखण्ड रूप में देखता है; जैसे आत्मा हैं; और अशुद्धनय इसमें भेद विवक्षा करता हैं; जैसे आत्मा में ज्ञान गुण है, दर्शन गुण है, वीर्य गुण है, चारित्र गुण है आदि-आदि ।
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इसी प्रकार द्रव्यकर्मों तथा नोकर्मों का सम्बन्ध आत्मा के साथ अनुपचरित-असद्भूतनय की अपेक्षा है; क्योंकि सम्बन्ध आरोपित नहीं है, इसलिए अनुपचरित है किन्तु अशाश्वत है, विनाशशील है, कर्म बँधते और छूटते रहते हैं, बंध और निर्जरा दोनों ही हैं, इसलिए असद्भूत भी है।
किन्तु यह अध्यात्मप्रधान नय, इस ग्रन्थ में विशेष विवक्षित न होने से इनका विस्तृत वर्णन यहाँ अपेक्षित नहीं हैं । यहाँ तो तत्व का ज्ञान प्राप्त करने की अपेक्षा से नयों का वर्णन अभीष्ट है । नैगम आदि नयों का विस्तृत वर्णन इसी अध्याय के ३४-३५ वें सूत्र में किया गया हैं ।
आगम वचन
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निछेसे पुरिसे कारण कहिं केसु कालं कइविहं ।
अनुयोगद्वार सूत्र १५१ निर्देश, पुरुष, कारण, (कहाँ किस स्थान में), किन में, काल, कितनी
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प्रकार का है ।
तत्त्वों के सांगोपांग ज्ञान के उपाय
निर्देश - स्वामित्वसाधनाधिकरण- स्थिति - विधानतः । ७ I
(१) निदेश (२) स्वामित्व (३) साधन ( ४ ) अधिकरण (५) स्थिति (६) विधान इनके द्वारा तत्त्वों का विस्तृत सांगोपांग ज्ञान होता है ।) प्रस्तुत सूत्र में जीवादि तत्त्वों के विस्तृत ज्ञान हेतु
विवेचन
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