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श्रीमद राजचन्द्र
११ अनादिका जो स्मृतिमे है उसे भूल जाना। १२ जो स्मृतिमे नही है उसे याद करे | १३ वेदनीय कर्मका उदय हुआ हो तो पूर्वकर्मस्वरूपका विचार करके घबराना नही । १४ वेदनीयका उदय हो तो निश्चय रूप 'अवेद' पदका चिंतन करना। १५ पुरुष वेदका उदय हो तो स्त्रीका शरीर पृथक्करणपूर्वक देखना-ज्ञानदशासे । १६ त्वरासे आग्रह-वस्तुका त्याग करना, त्वरासे आग्रह 'स' दशाका ग्रहण करना । १७ परतु बाह्य उपयोग नहीं देना। १८ ममत्व ही बध है। १९ बंध ही दुख है। २० दु खसुखसे पराड्मुख होना । २१. सकल्प-विकल्पका त्याग करना । २२ आत्म-उपयोग कर्मत्यागका उपाय है। २३ रसादिक आहारका त्याग करना । २४ पूर्वोदयसे न छोड़ा जाये तो अवधरूपसे भागना । २५. जो जिसकी है उसे वह सौप दे (विपरीत परिणति )। २६ जो है सो है परतु मन विचार करनेके लिये शक्तिमान नही है । २७ क्षणिक सुख पर लुब्ध नही होना । २८. समदृष्टिके लिये गजसुकुमारके चरित्रका विचार करना । २९ रागादिसे विरक्त होना यही सभ्यग्ज्ञान है । ३० सुगधी पुद्गलोको नही सघना । स्वभावत. वैसी भूमिकामे आ गये तो राग नही करना। ३१ दुर्गधसे द्वेष नही करना। ३२ पुद्गलकी हानिवृद्धिसे खेदखिन्न या प्रसन्न नही होना । ३३. आहार अनुक्रमसे कम करना ( लेना )।३४. हो सके तो कायोत्सर्ग अहोरात्र करना, नही तो एक घटा करनेसे नही चूकना। ३५ ध्यान एकचित्तसे रागद्वेष छोड़कर करना । ३६ ध्यान करनेके बाद चाहे जैसा भय उत्पन्न हो तो भी नही डरना। अभय आत्मस्वरूपका
विचार करना । 'अमर दशा जानकर चलविचल नही होना।' ३७. अकेले शयन करना। ३८ अतरंगमे सदा एकाकी विचार लाना। ३९ शका, कखा या वितिगिच्छा नही करना । ऐसेकी सगति करना कि जिससे शीघ्र आत्महित
हो। ४० द्रव्यगुण देखकर भी राजी नहीं होना। ४१ पड़ द्रव्यके गुणपर्यायका विचार करें। ४२ सबको समदृष्टिसे देखे । ४३ बाह्य मित्रसे जो जो इच्छा रखते हो, उसकी अपेक्षा अभ्यंतर मित्रको शीघ्र चाहे । ४४ वाह्य स्त्रीकी जिस प्रकारसे इच्छा रखते हो, उससे विपरीत प्रकारसे आत्माकी स्त्री तद्रूप
वही चाहे। ४५ बाहर लड़ते हैं, उसकी अपेक्षा तो अभ्यतर महाराजाको हरायें।