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पवयणसारो ]
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रहित परमानन्दमय एक लक्षण को रखने वाला, (अनंतं) अनंत अर्थात् अनन्त भविष्यत काल में विनाश रहिल अथवा अप्रमाण (च) तथा (अध्वु छिण्णं) विभिन्नरहित अर्थात् असता का उदय न होने से निरन्तर रहने वाला ( सुहं) आनन्द रहता है । यही सुख उपादेय है, इसी की निरन्तर भावना करनी योग्य है ।
अय शुद्धोपयोगपरिणतात्मस्वरूपं निरूपयति-
सुविदिवपयत्थसुत्तो संजमतव संजुदो विगदरागो ।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो' सुद्धोवओगो त्ति ॥ १४ ॥ सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतपः संयुतो विगतरागः । श्रमणः समसुखदुःखो भणितः शुद्धोपयोग इति ||१४|| सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञान श्रद्धानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थ सूत्रः । सकल जीवनका शुम्मन निम्पचेचिणाभिलापविकल्पाच्च व्यायत्यत्मिनः शुद्धस्वरूपे संयमनात् स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गः चैतन्यप्रतपनाच्च संयमतपः संयुक्तः । सकलमोहनीयविपाकविवेकभावनासौष्ठवस्फुटीकृत निर्विकारात्मस्वरूपत्याद्विगतरागः । परमकलावलोकनातनुभूयमानसाता सात वेदनीय विपाक निर्यतित सुख दुःख - जनित परिणामवैषम्यत्वात्समसुख - दुःखः श्रमणः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयते ॥ १४ ॥
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भूमिका – अब, शुद्धोपयोग रूप परिणत आत्मा के स्वरूप को कहते हैं अन्वयार्थ - [सुविदितपदार्थसूत्रः ] भली भांति जान लिये हैं (१) (निज शुद्ध आत्मा आदि स्व-पर) पदार्थों को और सूत्रों (श्रुत - आगम ) को जिसने (२, ३) [ संयमतपः संयुतः ] जो संयम युक्त और तप युक्त है, (४) [ ( वीतरागः ] राग रहित है, ( ५ ) [ समसुख - दुःखः ] समान है सुख दुःख जिसको (सात्ता असातावेदनीय के उदय से जिसको सुख दुःख का बेदन नहीं है अर्थात् समानुभव है ) ऐसा [ श्रमणः ] श्रमण (मुनि) [ शुद्धोपयोगः | शुद्धोपयोगी [ इति भणितः ] कहा गया है।
टीका --- ( १ ) सूत्रों के अर्थ के ज्ञान के बल से स्व द्रव्य और पर द्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान में और विधान में ( आचरण में) समर्थ होने के कारण से ( स्वद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता का ज्ञान, श्रद्धान आचरण होने से ) भली भाँति जान लिया है पदार्थों को और (उनके प्रतिपादक सूत्रों को जिसने, (२) समस्त छः जीवनिकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय ( सम्बन्धी ) अभिलाषा के विकल्प से ( आत्मा ) को व्यावृत्त करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप संयम करने से संयम युक्त हैं, ( ३ ) और स्वरूप विश्रान्त (२) सुद्धोवयोगोति ( ज
(१) भणिओ (ज० वृ७)
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