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पवयणसारो ]
एवमयमपास्तसमस्तशुभाशुभोपयोगवृत्तिः शुद्धोपयोगवृत्तिमात्मसात्कुर्वाणः शुद्धोपयोगाधिकारमारभते । तत्र शुद्धोपयोगफलमात्मनः प्रोत्साहनार्थमभिष्टौति
अइसयमावसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं । अन्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥१३॥
अतिशयमात्मसमुत्थं, विषयातीतं, अनौपम्यमनन्तं ।
अव्युच्छिन्नञ्च सुखं शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ॥१३॥ आसंसारावपूर्वपरमाद्भुतालादरूपत्वादात्मानमेवाश्रित्य प्रवृत्तत्वात्पराश्रयनिरपेक्षत्वावत्यन्तविलक्षणत्वात्समस्तायतिनिरपायित्वान्नरन्तर्यप्रवर्तमानत्वाच्चातिशयवदात्मसमुत्थं विषयातीतमनौपम्यमनन्तमव्युच्छिन्नं च शुद्धोपयोगनिष्पन्नानां सुखमतस्तत्सर्वथा प्रार्थनीयम् ॥१३॥
भूमिका-इस प्रकार यह (श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव), नष्ट कर दिया है समस्त शुभ और अशुभ उपयोग की परिणति को जिन्होंने (ऐसे होते) शुद्धोपयोग परिणति को अंगीकार करते हुए, शुद्धोपयोग अधिकार को प्रारम्भ करते हैं। उसमें आत्मा के प्रोत्साहन के लिये (सर्व प्रथम) शुद्धोपयोग के फल की प्रशंसा करते हैं:
अन्वयार्थ---[शुद्धोपयोगप्रसिद्धानां] शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए (शुद्धोपयोग के फल को प्राप्त हुए) आत्माओं का (अरहत सिद्धों का) । सुखं | सुख [अतिशयं] अतिशय, | आत्म-समुत्थं] आत्मा से उत्पन्न, {विषयातीत] विषयों से रहित (अतीन्द्रिय), [अनौपम्यं] अनुपम, अनन्त (अविनाशी) [च ] और [अविच्छिन्नं] अविछिन्न (अटूटनिरन्तर एक सा रहने वाला) है ।
टीका-(१) अनादि संसार से जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया ऐसे अपूर्व, परम अद्भुत आल्हाद रूप, होने के कारण से अतिशयवान, (२) आत्मा को ही आश्रय लेकर (स्वाश्रित) प्रवर्तमान होने के कारण से 'आत्मोपन्न', (३) पराश्रय से निरपेक्ष होने के कारण से (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के तथा संकल्प विकल्प के आश्रय की अपेक्षा से रहित होने से) 'विषयातीत', (४) अत्यन्त विलक्षण होने के कारण से (अन्य सुखों से सर्वथा भिन्न लक्षणवाला होने से) 'अनुपम', (५) समस्त आगामी काल में कभी नाश को प्राप्त न होने के कारण से 'अनन्त', और (६) बिना ही अन्तर के प्रवर्तमान होने के कारण से 'अविच्छिन्न', ऐसा सुख शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं के (अरहन्त सिद्धों के)