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पश्यणसारो ।
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यहां विस्तार यह है कि यहां धर्म शब्द से अहिंसा लक्षणरूप मुनिधर्म, श्रावक का धर्म, उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्म अथवा रत्नत्रय-स्वरूपधर्म वा मोह क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम या शुद्ध वस्तु का स्वभाव ग्रहण किया जाता है। वही धर्म अन्य पर्याय से अर्थात चारित्रभाव की अपेक्षा चारित्र कहा जाता है । यह सिद्धान्त का वचन है कि "चारितं खल धम्मो" (देखो गाथा ७वीं) वही चारित्र अपहृतसंयम तथा उपेक्षा संयम के भेद से वा सराग वीतराग के भेद से वा शुभोपयोग, शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का है । इनमें से शुद्ध संप्रयोग शब्द से कहने योग्य जो शुद्धोपयोग रूप वीतरागचारित्र है, उससे निर्वाण प्राप्त होता है। जब विकल्प रहित समाधिमय शुद्धोपयोग की शक्ति नहीं होती है। तब यह आत्मा शुमोपयोग रूप सरागभाव से परिणमन करता है, तब अपूर्व और अनाकुलता लक्षणधारी निश्चय सुख से विपरीत आकुलता को उत्पन्न करने वाला स्वर्ग सुख पाता है। पीछे परमसमाधि के योग्य सामग्री के होने पर मोक्ष को प्राप्त करता है ऐसा सूत्र का भाव है ।
अथ चारित्रपरिणामसंपर्कासंभवादत्यन्तहेयस्थाशुभपरिणामस्य फलमालोचयति
असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय रइयो । दुक्खसहस्सेहि सदा' अभिदुदो भमदि अच्चंतं ॥१२॥
अशुभोदयेन आत्मा कुनरस्तिर्यक भूत्वा नैरयिकः ।
दुःखसहस्र: सदा अभिद्रुतो भ्रमत्यत्यन्तम् ॥१२॥ यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमनासादयन्नशुभोपयोगपरिणतिमालम्बते तदा कुमनुष्यतिर्यनारकभ्रमणरूपं दुःखसहस्रबन्धमनुभवति । ततश्चारित्रलवस्याप्यमावादत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोग इति ॥१२॥
भूमिका—अब यहाँ चारित्र परिणाम के अभाव में अत्यन्त हेय रूप अशुभ परिणाम के फल की समीक्षा करते हैं
अन्वयार्थ- [अशुभोदयेन] अशुभ के उदय से [आत्मा] आत्मा] [कुनरः] हीन मनुष्य [तिर्यक् ] तिर्यंच या [नरयिकः] नारकी [भूत्वा ] होकर [दुःखसहस्र:J हजारों दुःखों से | सदा निरन्तर [अभिद्रुतः] पीडित होता हुआ [अत्यन्तं भ्रमति] संसार में अत्यन्त-दीर्घ काल तक-भ्रमण करता है।
१. सया (जल ७०)। २. भमइ (जा वृ०)। ३. अभिभूदो (ज०७०)।