Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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वैशिष्ट्य
आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित पंचाशक मुख्यतः आचारपरक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ न अति लघु है, न ही अति दीर्घ, अपितु मध्यम आकार का है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्र ने अनेक विषयों का चयन किया है। एक ही ग्रन्थ में श्रमण एवं श्रावक-धर्म के अनेक पहलुओं का स्पर्श किया है।
इस ग्रन्थ में श्रमण व श्रावक-वर्ग की लगभग सभी दैनिक आवश्यक क्रियाओं को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया गया है।
इस प्रकार के ग्रन्थ देखने को कम ही मिलते हैं। आचार्य हरिभद्र ने बिखरे मोतियों को माला का आकार दिया, जो अभिवन्दनीय है, प्रशंसनीय है। वास्तव में, आचार्य हरिभद्रसूरि बहुआयामी प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व के धनी हैं।
आचार्य हरिभद्र की समीक्षात्मक एवं समन्वयात्मक-दृष्टि आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों का परिशीलन करने पर धर्म और दर्शन-जगत् में उनके द्वारा किए गए बहुमुखी योगदान का बोध होता है। उनके महत्वपूर्ण योगदान को निम्न पहलुओं में विभक्त कर सकते हैं
1. धार्मिक-परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतिकरण। 2. दर्शन-जगत् में हरिभद्र का स्थान। 3. सभी धर्मों के विद्वानों के प्रति आदरभाव एवं आदरसूचक शब्दों का व्यवहार। 4. इतर दर्शन का तलस्पर्शी अध्ययन एवं निष्पक्ष व्याख्या। 5. पौराणिक मिथ्या धारणाओं का निर्भीक रूप से खण्डन। 6. दर्शन व धर्म-जगत् में तर्क व बुद्धिवाद को स्थान। 7. कर्मकाण्डों की तार्किक समीक्षा। 8. मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण। 9. साधना के क्षेत्र में आराध्य का नाम-भेद महत्वपूर्ण नहीं। 10.अनेकता में एकता का सूत्र।
1. धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतिकरण- दर्शनयुग में दार्शनिकों में सर्वप्रथम विरोधी मतों का निराकरण करने की परम्परा प्रारम्भ हुई, पर यही परम्परा आगे चलकर पर-मत को अपमानित व स्वमत को श्रेष्ठ घोषित करने लगी तथा इस प्रकार की प्रवृत्ति ने जैनेतर दार्शनिक ही नहीं, अपितु जैन- दार्शनिक भी पीछे नहीं रहे।
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