Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
आगम में प्रायश्चित्त देने की विधि पाँच प्रकार की बताई है - 1. आगम 2. श्रुत 3. आज्ञा 4. धारणा और 5. जीत ।
इन पाँच प्रकार के प्रायश्चित्त से अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान बन जाता है।
निर्दोष भिक्षाचर्या वालों को प्रतिदिन प्रायश्चित्त देने के विधान पर शंका की गई कि प्रायश्चित्त सदोष वालों के लिए है, फिर निर्दोष भिक्षाचर्या वालों के लिए प्रायश्चित्त का विधान क्यों ? इसका समाधान यह किया है कि आगमानुसार अनुष्ठान का प्रायश्चित्त नहीं है, अपितु उस क्रिया को करते समय जो सूक्ष्म विराधना हो रही है, उसका प्रायश्चित्त है।
सामान्यतः, सभी जीवों का (आयुकर्म को छोड़कर) सात कर्मों का बंध निरन्तर होता रहता है। आयुकर्म का बंध एक भव में एक ही बार होता है। यहाँ तक कि दसवें गुण-स्थान में भी जीव मोह और आयु को छोड़कर छः कर्मों का ही बन्ध करते हैं। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी- केवली में भी सातावेदनीय-कर्म का बंध होता है। सातवें गुणस्थान में अप्रमत्तसंयमी को उत्कृष्ट से आठ मुहूर्त्त और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त की स्थिति का बन्ध होता है। वस्तुतः, छद्मस्थ को कर्मबन्ध होता है। चूंकि छद्मस्थ वीतरागी को भी मनोयोग आदि होते हैं, इसलिए विराधना की शुद्धि परम अनिवार्य है, अतः आगमोक्त अनुष्ठान कर कर्मबन्ध का छेदन करने वाले निर्दोष ही होते हैं।
जिस दोष का प्रायश्चित्त कर लिया गया हो, वह दोष पुनः न किया जाए, तो यह अच्छी प्रकार से किए गए प्रायश्चित्त का लक्षण है।
सप्तदश पंचाशक (कल्पविधि)
सत्रहवें पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने कल्पविधि का विवेचन किया है।
कल्प के दो प्रकार बताए हैं- 1. स्थित कल्प 2. अस्थित कल्प।
जिन आचारों का पालन सदैव करना होता है, वे स्थित कल्प कहलाते हैं और जिन आचारों का पालन किसी काल- विशेष में होता है और किसी काल में नहीं भी होता है, वे अस्थित कल्प कहलाते
हैं।
सामान्यतः, आचेलक, औद्देशिक आदि भेद से 10 प्रकार के कल्प होते हैं। ऋषभदेव व महावीर शासनवर्ती साधु-साध्वियों के लिए ये कल्प अनिवार्य होते हैं । बाईस तीर्थंकरों के शासनवर्ती साधुओं के लिए छः कल्प अस्थित हैं और चार कल्प स्थित हैं। अस्थित कल्प के पालन में विकल्प होता है और स्थित कल्प का पालन अनिवार्य होता है। कल्पों के ये दो भेद काल के प्रभाव के कारण ही किए गए हैं, इसका अन्य कोई कारण नहीं है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
46
www.jainelibrary.org