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[मूलाचारे संयतः । नोआगमद्रव्यं त्रिविधः । ज्ञायकशरीरसंयत:संयतप्राभतज्ञस्य शरीरं भूतं भवन भावि वा। भविष्यत्संयतत्वपर्यायो जीवो भाविसंयतः । तद्व्यतिरिक्तमसम्भवि कर्म नोकर्म, तयोः संयतत्वस्य कारणत्वाभावात् । संयतगुणव्यावर्णनपरप्राभृतज्ञ उपयुक्तः सम्यगा चरणसमन्वित आगमभावसंयतस्तेनेह प्रयोजनं, कुत: मूलगुणेषु विशुद्धानिति विशेषणादिति । मूलगुणादिस्वरूपावगमनं प्रयोजनम् । ननु' पुरुषार्थो हि प्रयोजनं न च मूलगुणादिस्वरूपावगमन, पुरुषार्थस्य धर्मार्थकाममोक्षरूपत्वात्, यद्येवं सुष्ठ मूलगुणस्वरूपावगमनं प्रयोजनं यतस्तेनैव ते धर्मादयो लभ्यन्ते इति । मूलगुणः शुद्धस्वरूपं साध्य साधनमिदं मूलगुणशास्त्र, साध्यसाधनरूपसम्बन्धोऽपि शास्त्रप्रयोजनयोरतएव वाक्याल्लभते, अभिधेयभूता मूलगुणाः तस्माद् ग्राह्यमिदं शास्त्रं
समन्वितत्वादिति । सर्वसंयतान् शिरसाभिवन्द्य मूलगुणान् इहपरलोकहितार्थान् कीर्तियिष्यामीति पदघटना। अथवा मूलगुणसंयतानामयं नमस्कारो मूलगुणान् सुविशुद्धान् संयतांश्च वन्दित्वा
नोआगम द्रव्य के ज्ञायक शरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त ऐसे तीन भेद हैं। उनमें से संयम के शास्त्रों को जाननेवाले का शरीर ज्ञायकशरीर कहलाता है। उसके भी भूत, वर्तमान और भावि ऐसे तीन भेद हैं। भविष्यत् में संयत की पर्याय को प्राप्त होनेवाला जीव भावि संयत है । यहाँ पर तद्व्यतिरिक्त नाम का जो नोआगम द्रव्य का तीसरा भेद है वह असम्भव है क्योंकि वह कर्म और नोकर्मरूप है तथा इन कर्म और नोकर्म में संयतपने के कारणत्व का अभाव है। अर्थात् द्रव्यनिक्षेप के आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य ऐसे दो भेद किये हैं। पुनः नोआगमद्रव्य के ज्ञायकशरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त की अपेक्षा तीन भेद किये हैं। यहाँ तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य कर्म का अभाव है।
संयत के गुणों का वर्णन करने में तत्पर जो प्राभूत-शास्त्र है उसको जानने वाला और उसी में उपयुक्त जीव अर्थात् सम्यक् प्रकार के आचरण से समन्वित साधु आगमभाव-संयत कहलाता है यहाँ पर इन्हीं भावसंयत से प्रयोजन है । क्योंकि 'मूलगुणेषु विशुद्धान्' गाथा में ऐसा विशेषण दिया गया है । मूलगुण आदि के स्वरूप को जान लेना ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है।
__शंका-पुरुषार्थ ही प्रयोजन है न कि मूलगुण आदि के स्वरूप का जानना, क्योंकि पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप है।
___ समाधान-यदि ऐसी बात है तो मूलगुणों के स्वरूप का जान लेना यह प्रयोजन ठीक ही है क्योंकि उस ज्ञान से ही तो वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं।
इन मूलगुणों के द्वारा आत्मा का शुद्ध स्वरूप साध्य है और मूलगुणों का प्रतिपादक यह शास्त्र साधन है—इस प्रकार से साध्य-साधनरूप सम्बन्ध भी शास्त्र और प्रयोजन के इन्हीं वाक्यों से प्राप्त हो जाता है। यहाँ पर ये मूलगुण अभिधेयभूत वाच्य हैं इसलिए यह शास्त्र ग्राह्य है, प्रामाणिक है क्योंकि यह प्रयोजन आदि तीन गुणों से समन्वित है। अतः सर्वसंयतों को सिर से नमस्कार करके इस लोक एवं परलोक में हितकारी ऐसे मूलगुणों का मैं वर्णन करूँगा-ऐसा पदघटना रूप अर्थ हुआ। अथवा मूलगुण और संयतों को-दोनों को नमस्कार किया समझना चाहिए । मूलगुणों को और सुविशुद्ध अर्थात् निर्मल चारित्रधारी संयतों
१. क न तु । २. क "नं स्वरूपार्थस्तस्य । ३. कमिदं शास्त्र । ४. क "संबंधित्वा । ५. क 'तांश्च ।
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