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[ मूलाचारे
मूलगुणोत्तरगुणस्वरूपविकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचाराङ्गमाचार्य'-पारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधाय:शिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तु कामः स्वस्य श्रोतणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकारणक्षम शुभपरिणामं विदधच्छीवट्टकेराचार्य: प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकारप्रतिपादनार्थं मंगलविका प्रतिज्ञां विधत्ते मूलगुणेस्वित्यादि
मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदे सिरसा।
इहपरलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि ॥१॥ मंगलनिमित्तहेतुपरिमाणनामकर्तृन् धात्वादिभिः प्रयोजनाभिधेयसम्बन्धाश्च व्याख्याय पश्चादर्थः कथ्यते। मूलगुणेसु-मूलानि च तानि गुणाश्च ते मूलगुणाः । मूलशब्दोऽनेकार्थे यद्यपि वर्तते तथापि प्रधानार्थे वर्तमानः परिगृह्यते । तथा गुणशब्दोऽप्यनेकार्थे यद्यपि वर्तते तथाप्याचरणविशेषे वर्तमानः परिगृह्यते । मूलगुणाः प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगुणाधारभूतानि तेषु मूलगुणेषु विषयभूतेषु कारणभूतेषु वा सत्सु ये । विसुद्धे--विशुद्धाः निर्मलाः संयतास्तान् मूलगुणेषु विशुद्धान् । वंदित्ता–वन्दित्वा मनोवाक्कायक्रियाभिः प्रणम्य, सव्वसंजदे-अयं सर्वशब्दो निरवशेषार्थवाचकः परिगृहीतो बह्वनुग्रहकारित्वात्तेन प्रमत्तसंयताद्ययोगिपर्यन्ता भूतपूर्वगत्या सिद्धाश्च परिगृह्यन्ते, सम्यक् यताः पापक्रियाभ्यो निवृत्ताः सर्वे च ते संयताश्च सर्वसंयतास्तान् सर्वसंयतान् प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्य
स्वरूप भेद, उपाय, साधन, सहाय और फल के निरूपण करने में कुशल है; आचार्य परम्परा से चला आ रहा ऐसा यह आचारांग नाम का पहला अंग है। उस आचारांग का अल्पशक्ति, अल्प बुद्धि और अल्प आयु वाले शिष्यों के लिए बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा करते हुए अपने और श्रोताओं के प्रारम्भ किये गये कार्यों के विघ्नों को दूर करने में समर्थ शुभ परिणाम को धारण करते हुए श्री वट्टकेराचार्य सर्वप्रथम मूलगुण नामक अधिकार का प्रतिपादन करने के लिए 'मूलगुणेसु' इत्यादि रूप मंगल पूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं
गाथार्थ-मूलगुणों में विशुद्ध सभी संयतों को सिर झुकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक के लिए हितकर मूलगुणों का मैं वर्णन करूँगा ॥१॥
प्राचारवृत्ति-मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता तथा प्रयोजन अभिधेय और सम्बन्ध इनका व्याख्यान करके पश्चात धात आदि के द्वारा शब्दों का अर्थ करते हैं । मूलभूत जो गुण हैं वे मूलगुण कहलाते हैं। यद्यपि 'मूल' शब्द अनेक अर्थ में रहता है फिर भी यहाँ पर प्रधान अर्थ में लिया गया है। उसी प्रकार 'गुण' शब्द भी यद्यपि अनेक अर्थ में विद्यमान है तथापि यहाँ पर आचरण विशेष में वर्तमान अर्थ ग्रहण किया गया है। अतः उत्तरगुणों के लिए आधारभूत प्रधान अनुष्ठान को मूलगुण कहते हैं । ये मूलगुण यहाँ विषयभूत हैं अथवा कारणभूत हैं । इन मूलगुणों में जो विशुद्ध अर्थात् निर्मल हो चुके हैं ऐसे सर्व संयतों को, सर्व शब्द यहाँ सम्पूर्ण अर्थ का वाचक है क्योंकि वह बहुत का अनुग्रह करने वाला है इसलिए इस सर्व शब्द से प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगी पर्यन्त सभी संयत और भूतपूर्व गति के न्याय से सिद्ध भी लिये जाते हैं। जो सं-सम्यक् प्रकार से यत-उपरत हो चुके
१. क आचार
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