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मूलनुपाधिकारः]
[३९ रोमकुपोद्गतजलं, जल्लं च मलं च स्वेदश्च जल्लमलस्वेदास्तैः विलिप्तं सर्वांग' विलिप्तजल्लमलस्वेदसर्वांगं । विलिप्तशब्दस्य पूर्वनिपातः । अथवा जल्लमलाभ्यां स्वेदो यस्मिन् जल्लमलस्वेदं, सर्व च तदंगं च सर्वांगं सर्वशरीरं विलिप्तं च तज्जल्लमलस्वेदं च सर्वांगं च तद्विलिप्तजल्लमलस्वेदसर्वांगम् । अथवा विलिप्ताः सूपचिता जल्लमलस्वेदा यस्मिन् सर्वांगे तद्विलिप्तजल्लमलस्वेदं तच्च तत् सर्वांगं च । अण्हाणं-अस्नानं जलावगाहनावभावः । घोरगुणो–महागुणः प्रकृष्टव्रतं, अथवा घोराः प्रकृष्टा गुणा यस्मिन् तद् घोरगुणम् । संजमदुगपालयंसंयमः कषायेन्द्रियनिग्रहः संयमस्य द्विकं द्वयं संयमद्विकं तस्य पालकं संयमद्विकपालक इन्द्रियसंयमप्राणसंयमरक्षकम् । मुणिणो-मुने: चारित्राभिमानिनो मुनेः । स्नानादिवर्जनेन विलिप्तजल्लमलस्वेदसर्वांगं महाव्रतपूतं यत्तदस्नानव्रतं घोरगुणं संयमद्वयपालकं भवतीत्यर्थः । नात्राशुचित्वं स्यात् स्नानादिवर्जनेन मुनेः व्रतैः शुचित्वं यतः । यदि पुनर्वतरहिता जलावगाहनादिना शुचयः स्युस्तदा मत्स्यमकरदुश्चरित्रासंयता: सर्वेऽपि शुचयो भवेयुः । न चवं, तस्मात् व्रतनियमसंयमर्यः शुचिः स शुचिरेव । जलादिकं तु बहु कश्मलं नानासूक्ष्मजन्तुप्रकीर्ण सर्वसावद्यमूलं न तत्संयतर्यत्र तत्र प्राप्तकालमपि सेवनीयमिति ॥
क्षितिशयनव्रतस्य स्वरूपं प्रपंचयन्नाह
है। जल्ल-सर्वांग को प्रच्छादित करनेवाला मल; मल-शरीर के एकदेश को प्रच्छादित करने वाला मल और स्वेद-रोमकूप से निकलता हुआ पसीना। स्नान आदि न करने से शरीर इन जल्ल, मल और पसीने से लिप्त हो जाता है अर्थात् शरीर में खूब पसीना और धूलि आदि चिपककर शरीर अत्यन्त मलिन हो जाता है यह अस्नानव्रत घोरगुण अर्थात् महान गुण है। अर्थात्-प्रकृष्ट-सबसे श्रेष्ठ व्रत है अथवा घोर अर्थात् प्रकृष्ट गुण इस व्रत में पाये जाते हैं। यह कषाय और इन्द्रियों का निग्रह करनेवाला होने से दो प्रकार के संयम का रक्षक है अथवा इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम का रक्षक है अर्थात् स्नान नहीं करने से इन्द्रियों का निग्रह होता है तथा प्राणियों को बाधा नहीं पहुँचने से प्राणिसंयम भी पलता है। इस प्रकार से चारित्र के अभिलाषी मुनि के स्नान आदि के न करने से जल्ल, मल और स्वेद से सर्वांग के लिप्त हो जाने पर भी जो महाव्रत से पवित्र है वह अस्नान नामक व्रत घोर गुणरूप है और दो प्रकार के संयम की रक्षा करने वाला है। अर्थात् यहाँ स्नानादि का वर्जन करने से मुनि के अशुचिपना नहीं होता है क्योंकि उनके व्रतों से पवित्रता मानी गयी है।
पुनः व्रतों से रहित भी जन यदि जल-स्नान आदि से पवित्र हो जावें तब तो फिर मत्स्य मकर आदि जलजन्तु और दुश्चारित्र से दूषित असंयत जन आदि सभी पवित्र हो जावें। किन्तु ऐसी बात नहीं है, इसलिए व्रत, नियम और संयम के द्वारा जो पवित्रता है वह ही पवित्रता है। किन्तु जल आदि तो बहुत कश्मल रूप है, नाना प्रकार के सूक्ष्म जन्तुओं से व्याप्त है और संपूर्ण सावद्य-पापयोग का मूल है वह यद्यपि जहाँ-तहाँ प्राप्त हो सकता है तो भी संयतों के द्वारा सेवनीय नहीं है ऐसा समझना।
क्षितिशयन व्रत का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं
१ क 'गं स वि. सर्वांगः। २ वृद्धिंगताः ।
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