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[मूलाचारे तीत्येवं चिन्तनमार्तध्यानं प्रथमं । इष्टै: सह सर्वदा यदि मम संयोगो भवति वियोगो न कदाचिदपि स्याद्यद्येवं चिन्तनमार्तघ्यानं द्वितीयं । क्षुत्तृटछीतोष्णादिभिरह व्यथितः कदैतेषां ममाभावः स्यात् । कथं मयौदनादयो लभ्या येन मम क्षधादयो न स्युः । कदा मम वेलायाः प्राप्तिः स्याद्येनाहं भुजे पिबामि वा। हाकारं पूत्कारं जलसेकं च कुर्वतोऽपि न तेन मम प्रतीकार इति चिन्तनमार्तध्यानं तृतीयमिति । इहलोके यदि मम पुत्राः स्युः परलोके यद्यहं देवो भवामि स्त्रीवस्त्रादिकं मम स्यादित्येवं चिन्तनं चतुर्थमार्तध्यानमिति ॥३६५।।
रौद्रध्यानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
तेणिक्कमोससारक्खणेसु तध चेव छविहारंभे।
रुद्द कसायसहिदं झाणं भणियं समासेण ॥३६६॥
स्तन्यं परद्रव्यापहरणाभिप्रायः । मृषाऽनृते तत्परता । सारक्षणं यदि मदीयं द्रव्यं चोरयति तमहं निहन्मि, एवमायुधव्यग्रहस्तमारणाभिप्रायः । स्तन्यमृषावादसारक्षणेषु । तथा चैव षड्विधारम्भे पृथिव्यप्तजोवायुवनस्पतित्रसकायिकविराधने च्छेदनभेदनबन्धनवधताडनदहनेषूद्यमःरौद्रं कषायसहितं ध्यानं भणितं ।समासेन संक्षेपेण । परद्रव्यहरणे तत्परता प्रथमं रौद्र परपीडाकरे मषावादे यत्नः द्वितीयं रोद्र । द्रव्यपशुपुत्रादिरक्षण
संयोग होता है तो कदाचित् भी वियोग न होवे ऐसा चिन्तन होना दूसरा आर्तध्यान है। क्षुधा, तषा, आदि के द्वारा मैं पीड़ित हो रहा हूँ, मुझसे कब इनका अभाव होवे? मुझे कैसे भातभोजन आदि प्राप्त होवे कि जिससे मुझे क्षुधा आदि बाधाएँ न होवें ? कब मेरे आहार की बेला आवे कि जिससे मैं भोजन करूँ अथवा पानी पिऊँ ? हाहाकार या पूत्कार और जल-सिञ्चन
दि करते हए भी उन बाधाओं से मेरा प्रतीकार नहीं हो रहा है अर्थात घबराने से, हाय-हाय करने से, पानी छिड़कने से भी प्यास आदि बाधाएँ दूर नहीं हो रही हैं इत्यादि प्रकार से चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्तध्यान है। इस लोक में यदि मेरे पुत्र हो जावें, परलोक में यदि मैं देव हो जाऊँ तो ये स्त्री, वस्त्र आदि मुझे प्राप्त हो जावें इत्यादि चिन्तन करना चौथा आर्तध्यान है।
रौद्रध्यान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-चोरो, असत्य, परिग्रहसंरक्षण और छह प्रकार की जीव हिंसा के आरम्भ में कषाय सहित होना रौद्रध्यान है, ऐसा संक्षेप से कहा है ॥३६६।।
प्राचारवृत्ति-स्तैन्य-परद्रव्य के हरण का अभिप्राय होना, मषा-असत्य बोलने में तत्पर होना, सारक्षण-- यदि मेरा द्रव्य कोई चुरायेगा तो मैं उसे मार डालूंगा इस प्रकार से आयुध को हाथ में लेकर मारने का अभिप्राय करना, षड्विधारम्भ-पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की विराधना करने में, इनका छेदन-भेदन करने में, इनको बाँधने में, इनका बध करने में, इनका ताड़न करने में और इन्हें जला देने में उद्यम का होना अर्थात् इन जीवों को पीड़ा देने में उद्यत होना-कषाय सहित ऐसा ध्यान रौद्र कहलाता है । यहाँ पर इसका संक्षेप से कथन किया गया है।
तात्पर्य यह है कि परद्रव्य के हरण करने में तत्पर होना प्रथम रौद्रध्यान है। पर को पीड़ा देनेवाले असत्य वचन के बोलने में यत्न करना दूसरा रौद्रध्यान है। द्रव्य अर्थात् धन, पशु,
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