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[मूलाचारे च नित्यं सर्वकालं निवारयति तस्य सामायिकमिति ॥५३०॥
दुष्टध्यानपरिहारेण सामायिकमाह
जो दु अठं च रुदं च झाणं वज्जदि णिच्चसा।
चकाराबनयोः स्वभेदग्राहकाविति कृत्वैवमुच्यते यस्त्वातं चतुष्प्रकारं रौद्र च चतुष्प्रकारं ध्यानं वर्जयति सर्वकालं तस्य सामायिकमिति ।
शुभध्यानद्वारेण सामायिकस्थानमाह
जो दु धम्मं च सुपकं च झाणे झायदि णिच्चसा ॥५३१॥ अत्रापि चकारावनयोः स्वभेदप्रतिपादकाविति कृत्वैवमाह-यस्तु धर्म चतुष्प्रकारं शुक्लं च चतुकारं ध्यानं ध्यायति यूनक्ति सर्वकालं तस्य सामायिकं तिष्ठतीति । केवलिशासनमिति सर्वत्र सम्बन्धो दृष्टव्य इति ॥५३१॥
किमर्थं सामायिक प्रज्ञप्तमित्याशंकायामाह
सावज्जजोगपरिवज्जणट्ट सामाइयं केवलिहिं पसत्थं । गिहत्थधम्मोऽपरमत्ति णिच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्थं ॥५३२॥
शब्द का वर्जन करते हैं तथा भोगेन्द्रियों का नित्य ही निवारण करते हैं अर्थात् इन इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष नहीं करते हैं उनके सामायिक होता है।
दुष्ट ध्यान के परिहार द्वारा सामायिक का वर्णन करते हैं
गाथार्थ—जो आर्त और रौद्र ध्यान का नित्य ही त्याग करते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है।
आचारवृत्ति-इस गाथा में जो दो बार 'च' शब्द है वे इन दोनों ध्यानों के अपनेअपने भेदों को ग्रहण करने वाले हैं। इसलिए ऐसा समझना कि जो मुनि चार प्रकार के आर्तध्यान को और चार प्रकार के रौद्र ध्यान को सर्वकाल के लिए छोड़ देते हैं उनके सामायिक होता है।
अब शुभ ध्यान द्वारा सामायिक का प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ-जो धर्म और शुक्ल ध्यान को नित्य ही ध्याते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है ।।५३१॥
आचारवृत्ति-यहाँ पर भी दो चकार इन दोनों ध्यानों के स्वभेदों के प्रतिपादक हैं। अर्थात् जो मुनि चार प्रकार के धर्म-ध्यान को और चार प्रकार के शुक्ल-ध्यान को ध्याते हैं, हमेशा उनमें अपने को लगाते हैं उनके सर्वकाल सामायिक ठहरता है ऐसा केवली भगवान् के शासन में कहा गया है। इस अन्तिम पंक्ति का सम्बन्ध सर्वत्र समझना चाहिए।
किसलिए सामायिक को कहा है ऐसी शंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-सावध योग का त्याग करने के लिए केवली भगवान् ने सामायिक कहा है। गृहस्थ धर्म जघन्य है, ऐसा जानकर विद्वान् प्रशस्त आत्म हित को करे ॥५३२॥
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