Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 554
________________ ४६६] मूलाचारे करुयुक्तः परिणतो नियमात् निश्चयेन सिद्ध इति भवति ज्ञातव्यो 'भाविनि वर्तमानबहुप्रचारोऽन्तर्मुहूर्तादूवं सिद्धो भवति, अथवा सिद्ध एवं सर्वावश्यकर्युक्तः सम्पूर्णो नान्य इति, अय पुनः शेषात् स्तोकात् निर्गतानि नि:शेषाणि न स्तोकरहितानि सावशेषाणि न सम्पूर्णानि करोत्यावश्यकानि तदा तस्य नियमान्निश्चयात आवासका: स्वर्गाद्यावासा भवन्ति तेनैव भवेन न मोक्ष: स्यादिति यदि सविशेषान्नियमात्करोति तदा तु सिद्धः कर्मक्षयसमर्थः स्यात, अथ निविशेषान्नियमाच्छैथिल्यभावेन करोति तदा तस्य यतेनियमाः समतादिक्रिया आवासयन्ति प्रच्छादयन्तीति आवासकाः प्रच्छादकाः नियमाभवन्तीत्यर्थः । अथ वा संसारे आवासयन्ति स्थापयन्तीत्यर्थः ॥६८६॥ अथ वाऽऽवासकानामयमर्थ इत्याह आवासयं तु आवसएसु सन्वेसु अपरिहीणेसु। मणवयणकायगुत्तिदियस्स आवासया होति ॥६८७॥ मनोवचनकार्यैर्गुप्तानींद्रियाणि यस्यासौ मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्तस्य मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियस्य सर्वेष्वावश्यकेष्वपरिहीणेष्वावसनमवस्थानं यत्तेन आवश्यकाः साधोर्भवंति परमार्थतोऽन्ये पुनरावासकाः कर्माअन्य कोई नहीं। पुनः जो निःशेष आवश्यकों को नहीं करते हैं वे निश्चय से स्वर्ग आदि में ही आवास करनेवाले हो जाते हैं, उसी भव से उन्हें मोक्ष नहीं हो पाता है ऐसा अभिप्राय है । तात्पर्य यह है कि यदि सविशेषरूप से आवश्यक करते हैं तब तो ये सिद्ध अर्थात् कर्मों के क्षय में समर्थ हो जाते हैं और यदि निविशेष—शिथिलभाव से करते हैं तो उस यति के वे नियम-सामायिक आदि आवश्यक क्रियाएँ उसे आवासित-प्रच्छादित कर देते हैं अर्थात् वे कर्मों से आत्मा को ढक लेते हैं, सर्वथा कर्म निर्जीर्ण नहीं हो पाते हैं। अथवा वे शिथिलभाव-अतीचार आदि सहित आवश्यक उनका संसार में आवास कराते हैं अर्थात् कुछ दिन संसार में रोके रखते हैं। भावार्थ-जो मुनि इन आवश्यक क्रियाओं को निरतिचार करते हुए पुन: उन रूप परिणत हो जाते हैं-निश्चय आवश्यक क्रिया रूप हो जाते हैं वे निश्चय आवश्यक क्रियामय कहलाते हैं। वे अन्तर्मुहुर्त के अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। तथा जो मुनि इनको करते हुए भी अतीचारों से नहीं बच पाते हैं वे इनके प्रभाव से कुछ काल तक स्वर्गों व मनुष्यलोक के सुखों को प्राप्त करके पुनः परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसा समझना। अथवा आवासकों का यह अर्थ है, सो ही बताते हैं गाथार्थ-हीनता रहित सभी आवश्यकों में जो आवास करना है वह ही मन-वचनकाय से इन्द्रियों को वश करनेवाले के आवश्यक होते हैं ।।६८७॥ आचारवत्ति-मन-वचन-काय से जिसकी इन्द्रियाँ गुप्त हैं-वशीभूत हैं वह मनवचनकाय गुप्तेंद्रिय अर्थात् त्रिकरण जितेन्द्रिय कहलाता है । उसका जो न्यूनतारहित सम्पूर्ण आवश्यकों में अवस्थान है-रहना है उसी हेतु से साधु के परमार्थ से आवश्यक होते हैं, किन्तु अन्य जो १ क भाविनि भूतवदुपचारः । अन्त । २ क न सम्पूर्णानि । ३ क 'कात् स्वर्गादौ निवासो भवति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580