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पदावश्यकाधिकारः]
[४६६ मध्ये पठितत्वात्, यथाऽत्र पंचनमस्कारनिरूपणं षडावश्यकानां च निरूपणं कृतमेवमनयोरप्यधिकारात भवतीति नामस्थाने निरूपणमनयोरिति ॥६६०॥
चूलिकामुपसंहरन्नाह
णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण ।
अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदि णादवो ॥६६१॥ निर्युक्तेनियुक्तिरावश्यकचूलिकावश्यकनियुक्तिरेषा' कथिता मया समासेन संक्षेपेणार्थविस्तारप्रसंगोऽनियोगादाचारांगाद्भवति ज्ञातव्य इति ॥६६१॥
आवश्यकनियुक्ति सचूलिकामुपसंहरन्नाह
अर्थ-वसतिका, जिनमंदिर आदि में प्रवेश करते समय वहाँ रहनेवाले भत, यक्ष आदि को 'निसही' शब्द द्वारा पूछकर प्रवेश करना चाहिए अर्थात् वसतिका आदि में प्रवेश करते समय 'निसही' शब्द बोलकर प्रवेश करना चाहिए। तथा वहाँ से बाहर निकलते समय 'असही' शब्द द्वारा पूछकर निकलना चाहिए अर्थात् निकलते समय 'असही' का उच्चारण करके निकलना चाहिए । पुनः कहते हैं
आचारसार में भी ऐसा ही कथन है । यथा
आत्मन्यात्मासितो येन त्यक्त्वा वाऽऽशास्य भावतः ।
निसह्यसौ स्तोऽन्यस्य तदुच्चारणमात्रकं ॥१३३॥ ___ अर्थ-जिसने अपनी आत्मा को आत्मा में स्थापित किया है और जिसने लोक आदि की आशा- अभिलाषा को छोड़ दिया है उसके भाव से अर्थात् निश्चयनय से निसही होते हैं। अन्य जीव के शब्दोच्चारण मात्र ही हैं।
निष्कर्ष यह निकलता है कि ये शब्द तो बोलने ही चाहिए। उनके साथ-साथ भाव आसिका, भाव निषिद्यका के अर्थों का भी ध्यान रखना चाहिए । शब्दोच्चारण तो आवश्यक है ही। यदि वह भावसहित है तो सम्पूर्ण फल को देने वाला है, भावशून्य मात्र शब्द किचित् ही फलदायक हैं ऐसा समझना। शब्द रूप निसही असही व्यवहार धर्म है और भावरूप निसही असही निश्चय धर्म है।
चलिका का उपसंहार करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-मैंने संक्षेप से यह नियुक्ति की नियुक्ति कही है और विस्तार रूप से अनियोग ग्रन्थों से जानना चाहिए ॥६६१।।
प्राचारवत्ति-मैंने संक्षेप से यह नियुक्ति की नियुक्ति अर्थात् आवश्यक चूलिका की आवश्यक नियुक्ति कही है। यदि आपको विस्तार से अर्थ जानना है तो अनियोग-आचारांग से जानना चाहिए।
अब चूलिका सहित आवश्यक नियुक्ति का उपसंहार करते हुए कहते हैं१क 'क्तिन्याये वा एषा।
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