Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 556
________________ ४६८] [मूलाचारे मोऽसा निसितात्माऽथ वा निषिद्धात्मा सर्वथा नियमितमतिस्तस्य भावतो निषिद्यका भवति। 'अनिषिद्धस्य स्वेच्छाप्रवृत्तस्यानिषिद्धात्मनश्चलचित्तस्य कषायादिवशत्तिनो निषिद्यकाशब्दो भवति केवलं शब्दमात्रकरणं तस्येति ॥६८६॥ आसिकार्थमाह आसाए विप्पमुक्कस्स प्रासिया होदि भावदो। प्रासाए अविप्पमुक्कस्स सद्दो हवदि केवलं ॥६६०।। आशया कांक्षया विविधप्रकारेण मुक्तस्य आसिका भवति भावतः परमार्थतः, आशया पुनरवि. प्रमुक्तस्यासिकाकरणं शब्दो भवति केवलं, किमर्थमासिकानिषिद्यकयोरत्र निरूपणमिति चेन्न त्रयोदशकरण के भाव से निषिद्यका होती है। किन्तु जो अनिषिद्ध हैं-स्वेच्छा से प्रवृत्ति करनेवाले हैं, जिनका चित्त चंचल है अर्थात् जो कषाय के वशीभूत हो रहे हैं उनके निषिद्यका शब्द केवल शब्दमात्र ही है। आंसिका का अर्थ कहते हैं-- गाथार्थ-आशा से रहित मुनि के भाव से आसिका होती है किन्तु आशा से सहित के शब्दमात्र होती है ॥६९०॥ प्राचारवृत्ति-कांक्षा से जो विविध प्रकार से मुक्त हैं-छुट चुके हैं उनके परमार्थ से आसिका होती है। किन्तु जो आशा से मुक्त नहीं हुए हैं उनके आसिका करना केवल शब्दमात्र ही है। यहाँ पर आसिका और निषिद्यका का निरूपण कसलिए किया है ? तेरह प्रकार के करण में इनको लिया गया है, इसलिए यहाँ पर इनका निरूपण करना जरूरी था। जिस प्रकार से यहाँ पर पंचनमस्कार का निरूपण किया गया है और छह आवश्यक क्रियाओं का निरूपण किया गया है उसी प्रकार से यहाँ पर इन दोनों का भी अधिकार है इसलिए नाम के स्थान में इनका निरूपण किया है। विशेषार्थ-करण शब्द से तेरह प्रकार की क्रियाएँ ली जाती हैं। पाँच परमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक क्रिया तथा असही और निसही ये तेरह प्रकार हैं । इस अध्याय में पाँचों परमेष्ठी का वर्णन किया है। छह आवश्यक क्रियाओं को तो प्रमुखता है ही अतः इसी अधिकार में आसिका और निषिद्यका का वर्णन भी आवश्यक हीथा। यहाँ पर दो गाथाओं में भाव निषिद्यका और भावआसिका की सार्थकता बतलायी है। और शब्द बोलना केवल शब्दमात्र है ऐसा कहा है किन्तु शब्दोच्चारण की विधि नहीं बतलाई है जोकि अन्यत्र ग्रन्थों में कही गई है । अनगार धर्मामृत में असही और निसही का विवेचन इस प्रकार से है वसत्यादौ विशेत्तत्स्थं भूतादि निसहीगिरा। आपच्छय तस्मान्निगच्छेत्तं चापच्छ्यासहीगिरा ॥१३२।। अनगार. अ०८, पृ०६२५-२६ १क अनिसितस्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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