________________
५०० ]
आवासयणिज्जत्ती एवं कधिदा समासश्रो विहिणा |
जो उवजुंजदि णिच्चं सो सिद्धि जादि विसुद्धप्पा ॥६६२॥
आवश्यक निर्युक्तिरेवंप्रकारेण कथिता समासतः संक्षेपतो विधिना, तां य उपयुक्ते समाचरति नित्यं सर्वकालं स सिद्धि याति विशुद्धात्मा सर्वकर्मनिर्मुक्त इति ॥ ६२ ॥
[मूलाचारे
गाथार्थ - इस तरह संक्षेप से मैने विधिवत् आवश्यक निर्युक्ति कही है । जो नित्य ही इनका प्रयोग करता है वह विशुद्ध आत्मा सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ||६६२||
श्राचारवृत्ति - इस प्रकार संक्षेप से मैंने विधिपूर्वक आवश्यक निर्युक्ति कही है जो मुनि सर्वकाल इस रूप आचरण करते हैं वे विशुद्ध आत्मा - सर्वकर्म से मुक्त होकर सिद्धपद को प्राप्त कर लेते हैं ।
विशेषार्थ - अनगार धर्मामृत के आठवें अध्याय में छह आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करके नवम अध्याय में नित्य नैमित्तिक क्रियाओं का अथवा इन आवश्यक क्रियाओं के प्रयोग का वर्णन बहुत ही सरल ढंग से किया है । यथा
अर्धरात्रि के दो घड़ी अनन्तर से अपर रात्रिक स्वाध्याय का काल हो जाता है । उस समय पहले 'अपररात्रिक' स्वाध्याय कस्के पुनः सूर्योदय के दो घड़ी शेष रह जाने पर स्वाध्याय समाप्त कर 'रात्रिक प्रतिक्रमण करके रात्रियोग समाप्त कर देवे । फिर सूर्योदय के समय से दो घड़ी तक 'देववन्दना' अर्थात् सामायिक करके गुरुवन्दना' करे । पुनः 'पौर्वाह्निक' स्वाध्याय प्रारम्भ करके मध्याह्न के दो घड़ी शेष रहने पर स्वाध्याय समाप्त कर 'देववन्दना' करे । मध्याह्न समय देववन्दना समाप्त कर 'गुरुवन्दना' करके 'आहार हेतु 'जावे । यदि उपवास हो तो उस समय जाप्य या आराधना का चिन्तवन करे । गोचरी से आकर गाचार प्रतिक्रमण करके व प्रत्याख्यान ग्रहण करके पुनः 'अपराह्निक' स्वाध्याय प्रारम्भ कर सूर्यास्त के दो घड़ी पहले समाप्त कर 'दैवसिक' प्रतिक्रमण करे । पुनः गुरुवन्दना करके रात्रियोग ग्रहण करे तथा सूर्यास्त के अनन्तर 'देववन्दना' सामायिक करे । रात्रि के दो घड़ी व्यतीत हो जाने पर 'पूर्व रात्रिक' स्वाध्याय प्रारम्भ करके अर्धरात्रि के दो घड़ी पहले ही स्वाध्याय समाप्त करके शयन करे । यह अहोरात्र सम्बन्धी क्रियाएँ हुईं ।
इसी तरह नैमित्तिक क्रियाओं में अष्टमी, चतुर्दशी की क्रिया, चौदश अमावस या पूर्णिमा को पाक्षिक प्रतिक्रमण, श्रुतपंचमी को श्रुतपंचमी क्रिया, वीर निर्वाण समय वीर निर्वाण क्रिया इत्यादि क्रियाएँ करे ।
Jain Education International
किन-किन क्रियाओं में किन-किन भक्तियों का प्रयोग होता है, सो देखिए
स्वाध्याय के प्रारम्भ में लघु श्रुत, लघु आचार्य भक्ति तथा समाप्ति के समय लघु १. मध्याह्न देववन्दना के अनन्तर ही आहार का विधान इसी मूलाचार ग्रन्थ में पंचाचार अधिकार के अशनसमिति के लक्षण की गाथा ३१८ की टीका में भी स्पष्टतया उल्लेख है । यथा - " मध्याह्नदेववन्द कृत्वा भिक्षावेलायां ज्ञात्या प्रशांते धूममुशलादिशब्दे गोचरं प्रविशेन्मुनिः ।"
[ अधिकार ५, पृष्ठ २६२]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org