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[मूलाचारे
सिद्ध, योगि, शान्ति भक्ति करना चाहिए । आचार्य समाधि पर सिद्धयोगि, आचार्य और शांति भक्ति करनी होती है । इस तरह संक्षेप से कहा है।
इनका और भी विशेष विवरण आचारसार, मूलाचार प्रदीप, अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए।
इन भक्तियों को यथास्थान करते समय कृतिकर्म विधि की जाती है। इसमें "अड्ढाइज्जदीव दोसमुद्देसु" आदि पाठ सामायिक दण्डक कहलाता है । 'थोस्सामि' पाठ चतुर्विशति तीर्थंकर स्तव है। मध्य में कायोत्सर्ग होता ही है, तथा 'जयति भगवान् हेमांभोज' इत्यादि चैत्य भक्ति आदि के पाठ वन्दना कहलाते हैं । अतः देवबन्दना व गुरुवन्दना में सामायिक, स्तव, वन्दना और कायोत्सर्ग ये चार आवश्यक सम्मिलित हो जाते हैं। तथा कायोत्सर्ग अन्यअन्य स्थानों में पृथक से भी किये जाते हैं। प्रतिक्रमण में र्भ कृतिकर्म में सामायिक दण्डक, कायोत्सर्ग और चतुर्विशति स्तव हैं । वीर भक्ति आदि के पाठ वन्दना रूप हैं। अतः इसमें भी ये सब गर्भित हो जाते हैं। आहार के अनन्तर प्रत्याख्यान ग्रहण किया ही जाता है तथा अन्य भी वस्तुओं के त्याग करने में व उपवास आदि करने में प्रत्याख्यान आवश्यक हो जाता है । इस तरह ये छहों आवश्यक प्रतिदिन किए जाते हैं।
कृतिकर्म प्रयोग में चार प्रकार की मुद्रायें मानी गयी हैं-यथा जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा और मुक्ताशुक्ति-मुद्रा (अनगार धर्मामृत, अध्याय ८, पृष्ठ ६०३)
__ दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर दोनों भुजाओं को लटकाकर कायोत्सर्ग से खड़े होना जिनमुद्रा है । बैठकर पद्मासन, अर्ध पर्यंकासन या पर्यंकासन से बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखना योगमुद्रा है। मुकुलित कमल के समान अंजुली जोड़ना वन्दना-मुद्रा है और दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर जोड़ना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है।
सामायिक दण्डक और थोस्सामि इनके पाठ में 'मुक्ताशुक्ति' मुद्रा का प्रयोग होता है। जयति' इत्यादि भक्ति बोलते हुए वन्दना करते समय 'वन्दना मुद्रा' होती है। खड़े होकर कायोत्सर्ग करने में 'जिनमुद्रा' एवं बैठकर कायोत्सर्ग करने में 'योगमुद्रा' होती है।
मुनि और आर्यिका देव या गुरु को नमस्कार करते समय पंचांग प्रणाम गवासन से बैठकर करते हैं।
कृतिकर्म प्रयोग विधि-'अथ देव-वन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तव–समेतं चैत्यभक्ति-कायोत्सर्ग करोम्यहं ।'
(इस प्रतिज्ञा को करके खड़े होकर पंचांग नमस्कार करे। पुनः खड़े होकर तीन आवर्त, एक शिरोनति करके मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़कर सामायिक दण्डक पढ़े।) सामायिक दण्डक स्तव
णमो अरहंताणं. णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।।
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