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[मूलाधारे
परिवारः पुत्रकलत्रादिकः शिष्यसामान्यसाधुश्रावकादिकः ऋद्धिविभूतिर्हस्त्यश्वद्रव्यादिका, सत्कार: कार्यादिष्वग्रतः करणं पूजनमर्चनं अशनं भक्तादिकं णनं सुगन्धजलादिकं हेतुः कारणं वा विकल्पार्थः, लयनं उत्कीर्णपर्वतप्रदेशः, शयनं पल्यंकतूलिकादिकं, आसनं वेत्रासनादिकं, भक्तो भक्तियुक्तो जन आत्मभक्तिर्वा, प्राणः सामर्थ्यं दशप्रकाराः प्राणा वा, कामो मैथुनेच्छा, अर्थो द्रव्यादिप्रयोजनं, इत्येवंकारणेन कायोत्सर्गं यः करोति परिवारनिमित्तं विभूतिनिमित्तं सत्कारपूजानिमित्तं चाशनपाननिमित्तं वा लयनशयनासननिमित्तं मम भक्तो जनो भवत्विति मदीया भक्तिर्वा ख्यातिं गच्छत्विति मदीयं प्राणसामर्थ्यं लोको जानातु मम प्राणरक्षको देवो वा मनुष्यो वा भवत्विति हेतो यः कायोत्सर्गं करोति, कामहेतु रर्थ हेतुश्च यः कायोत्सर्गः स सर्वोऽप्यप्रशस्तो मनः संकल्प इति ॥ ६८३॥
आज्ञा आदेशमन्तरेण नीत्वा वर्त्तनं । निर्देशः आदेशो वचनस्यानन्यथा करणं । प्रमाणं सर्वत्र प्रमाणीकरणं । कीर्तिः ख्यातिस्तस्या वर्णनं प्रशंसनं । प्रभावनं प्रकाशनं । गुणाः शास्त्रज्ञातृत्वादयोऽर्थः प्रयोजनं, आज्ञां मम सर्वोऽपि करोतु निदेशं मम सर्वोऽपि करोतु प्रमाणीभूतं मां सर्वोऽपि करोतु मम कीर्तिवर्णनं सर्वोऽपि
श्राचारवृत्ति-पुत्र, कलत्र आदि, अथवा शिष्य, सामान्य साधु व श्रावक आदि परिवार कहलाते हैं। हाथी, घोड़े, द्रव्य आदि का वैभव ऋद्धि है । किसी कार्य आदि में आगे करना सत्कार है, अर्चा करना पूजन है, भोजन आदि अशन है और सुगन्ध जल आदि पान हैं । इनके लिए कायोत्सर्ग करना अप्रशस्त है । उकेरे हुए पर्वत आदि के प्रदेश को लयन - लेनी कहते हैं, पलंग या गद्दे आदि शयन हैं, वेत्रासन - मोढ़ा, सिंहासन, कुर्सी आदि आसन हैं। भक्ति से सहित लोग भक्त हैं अथवा अपनी भक्ति होना भक्त है । सामर्थ्य को प्राण कहते हैं अथवा दश प्रकार प्राण होते हैं, मैथुन की इच्छा काम है, द्रव्य आदि का प्रयोजन अर्थ कहलाता है । तात्पर्य यह है कि
जो मुनि इन उपर्युक्त कारणों से कायोत्सर्ग करते हैं अर्थात् परिवार के निमित्त, विभूति के निमित्त सत्कार व पूजा के लिए तथा भोजन पान के हेतु अथवा लयन-शयन-आसन के लिए तथा लोग मेरे भक्त हो जावें या मेरी भक्ति खूब होवे, मेरी ख्याति फैले, मेरे प्राण सामर्थ्य को लोग जानें, देव या मनुष्य मेरे प्राणों के रक्षक होवें, इन हेतुओं से जो कायोत्सर्ग करते हैं तथा कामहेतु और अर्थहेतु जो कायोत्सर्ग है वह सब कायोत्सर्ग अप्रशस्त मन का परिणाम है ऐसा समझना ।
उसी प्रकार से और भी बताते हैं
आदेश के बिना आज्ञा लेकर वर्तन करें वह आज्ञा है । वचन को अन्यथा न करें अर्थात् कहे हुए वचन के अनुसार ही लोग प्रवृत्ति करें सो आदेश है । सभी स्थानों में प्रमाणभूत स्वीकार करें सो प्रमाणता है । कीर्ति - ख्याति से प्रशंसा होवे, प्रभावना होवे, शास्त्र के जानने आदि रूप गुण प्रगट होवें । प्रयोजन को अर्थ कहते हैं- सो हमारा प्रयोजन सिद्ध होवे । तात्पर्य यह है कि सभी लोग मेरी आज्ञा पालन करें, सभी लोग मेरे आदेश के अनुसार प्रवृत्ति करें, सभी मुझे प्रमाणीभूत स्वीकार करें, सभी लोग मेरी प्रशंसा करें, सभी लोग मेरी प्रभावना
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