Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 553
________________ पंडावश्यकाधिकार:]] [४६५ करोतु, मां प्रभावयन्तु सर्वेऽपि मदीयान् गुणान् सर्वेऽपि विस्तारयन्त्वित्यर्थं कायोत्सर्गेण ध्यानमिदमप्रशस्तमेवंविधो मनःसंकल्पोऽविश्वस्तोऽविश्वसनीयो न चिन्तनीयोऽप्रशस्तो यत इति ॥६८४॥ कायोत्सर्गनियुक्तिमुपसंहरन्नाह काउस्सग्गांणजुत्ती एसा कहिया मए समासेण। संजमतवढियाणं णिग्गंथाणं महरिसीणं ॥६८५॥ कायोत्सर्गनियुक्तिरेषा कथिता मया समासेन, संयमतपोवृद्धिमिच्छता निर्ग्रन्थानां महर्षीणामिति, नात्र पौनरुक्त्यमाशंकनीयं द्रव्याथिकपर्यायाथिक शिष्यसंग्रहणात्सूत्रवात्तिकस्वरूपेण कथनाच्चेति ॥६८५॥ षडावश्यकचूलिकामाह सव्वावासणिजुत्तो णियमा सिद्धोत्ति होइ णायवो। अह णिस्सेसं कुणदि ण णियमा प्रावासया होंति ॥६८६॥ आवश्यकानां फलमाह–अनया गाथया सर्वैरावश्यकनियुक्त: सम्पूर्णैरस्खलितैः समताद्यावश्य करें. सभी लोग मेरे गणों का विस्तार करें, इन प्रयोजनों से जो कायोत्सर्ग करते हैं उनका यह सब ध्यान अप्रशस्त कहलाता है । इस प्रकार का मनःसंकल्प अविश्वस्त है अर्थात् ये सब निन्तवन अप्रशस्त हैं ऐसा समझना चाहिए। कायोत्सर्ग नियुक्ति का उपसंहार करते हुए कहते हैं गाथार्थ-संयम, तप और ऋद्धि के इच्छुक, निग्रंथ महर्षियों के लिए मैंने संक्षेप से यह कायोत्सर्ग नियुक्ति कही है ॥६८५।। प्राचारवत्ति-संयम और तप की वृद्धि की इच्छा रखनेवाले निग्रंथ महर्षियों की कायोत्सर्ग नियुक्ति मैंने संक्षेप से कही है । यहाँ पर पुनरुक्त दोष नहीं है क्योंकि द्रव्याथिक और पर्यायाथिक शिष्यों का संग्रह किया गया है, तथा सूत्र और वार्तिक के स्वरूप से कथन किया गया है । अर्थात् जैसे सूत्र को पुनः वार्तिक के द्वारा स्पष्ट किया जाता है उसमें पुनरुक्त दोष नहीं माना जाता है उसी प्रकार से यहाँ द्रव्याथिक शिष्यों के लिए संक्षिप्त वर्णन किया गया है पुनः पर्यायाथिक शिष्यों के लिए उसी के भेद-प्रभेदों से विशेष वर्णन भी किया गया है। ऐसा समझना। अब छह आवश्यकों की चूलिका का वर्णन करते हैं गाथार्थ-सर्व आवश्यकों से परिपूर्ण हुए मुनि नियम से सिद्ध हो जाते हैं ऐसा जानना। जो परिपूर्ण रूप नहीं करते हैं वे नियम से स्वर्गादि में आवास करते हैं ।।६८६॥ प्राचारवृत्ति-इस गाथा के द्वारा आवश्यक क्रियाओं का फल कह रहे हैं जो सम्पूर्ण-अस्खलित रूप से समता आदि छहों आवश्यकों से परिणत हो चुके हैं वे निश्चय से सिद्ध हैं। अर्थात् यहाँ भावी में वर्तमान का बहुप्रचार-उपचार है क्योंकि वे मुनि अंतर्मुहुर्त के ऊपर सिद्ध हो जाते हैं । अथवा सिद्ध ही सर्व आवश्यकों से युक्त हैं—सम्पूर्ण हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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