Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 492
________________ तथा तपोविनयप्रयोजनमाह अषणयदि तवेण तम उवणयदि मोक्खमग्गमप्पाणं । तवविणयणियमिदमदी सो तवविणो त्ति णादव्वो ॥५६०॥ इत्येवमादिगाथानां 'आयारजीदा'दिगाथापर्यन्तानां तप आचारेर्थः प्रतिपादित इति कृत्वा नेह प्रतन्यते पुनरुक्तदोषभयादिति ॥५६॥ यतो विनयः शासनमूलं यतश्च विनयः शिक्षाफलम् तह्मा सव्वपयत्तेण विणयत्तं मा कदाइ छडिज्जो। अप्पसुदो विय पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण ॥५६१॥ यस्मात्सर्वप्रयत्नेन विनयत्व नो कदाचित्परिहरेत् भवान् यस्मादल्पश्रुतोऽपि पुरुषः क्षपयति कर्माणि विनयेन तस्माद्विनयो न त्याज्य इति ॥५६१॥ कृतिकर्मण: प्रयोजनं तं दत्वा प्रस्तुतायाः प्रश्नमालायास्तावदसौ केन कर्तव्यं तत्कृतिकर्म यत्पृष्टं तस्योत्तरमाह पंचमहव्वयगुत्तो संविग्गोऽणालस्रो प्रमाणी य । किदियम्म णिज्जरट्ठी कुणइ सदा ऊणरादिणिओ॥५६२॥ अब तपोविनय का प्रयोजन कहते हैं गाथार्थ-तप के द्वारा तम को दूर करता है और अपने को मोक्षमार्ग के समीप करता है । जो तप के विनय में बुद्धि को नियमित कर चुका है वह ही तपोविनय है ऐसा जानना चाहिए ॥५६०॥ प्राचारवृत्ति-गाथा का अर्थ स्पष्ट है । इसी प्रकार से पूर्व में' 'आयार'जीदा' आदि गाथा पर्यंत तप आचार में तप विनय का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसलिए यहाँ पर विस्तार नहीं करते हैं, क्योंकि वैसा करने से पुनरुक्त दोष आ जाता है। विनय शासन का मूल है और विनय शिक्षा का फल है, इसी बात को कहते हैं-- गाथार्थ-इसलिए सभी प्रयत्नों से विनय को कभी भी मत छोड़ो क्योंकि अल्पश्रुत का धारक भी पुरुष विनय से कर्मों का क्षपण कर देता है ।।५६११॥ प्राचारवृत्ति-अतः सर्व प्रयत्न करके विनय को कदाचित् भी मत छोड़ो, क्योंकि अल्पज्ञानी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश कर देता है इसलिए विनय को सदा काल करते रहना चाहिए। कृतिकर्म अर्थात् विनय कर्म का प्रयोजन दिखलाकर अब प्रस्तुत प्रश्नमाला में जो पहला प्रश्न था कि 'वह कृतिकर्म लिसे करना चाहिए ?' उसका उत्तर देते हैं गाथार्थ-जो पाँच महावतों से युक्त है, संवेगवान है, आलसरहित है और मान रहित है ऐसा एक रात्रि भी छोटा मुनि निर्जरा का इच्छुक हुआ हमेशा कृतिकर्म को करे। १. गाथा ३६४ से लेकर गाथा ३८८ तक विनय का व्याख्यान किया गया है । २. गाथा ३८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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