________________
४६४]
[भूनाचारे मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य।
तरा हु जमाचरंति तं गरहंता वि सुज्झति ॥६३१॥
यस्मान्मध्यमतीर्थकरशिष्या दृढबुद्धयोऽविस्मरणशीला एकाग्रमनसः स्थिरचित्ता अमोहलक्षा अमूढमनसः प्रेक्षापूर्वकारिणः तस्मात्स्फुटं यं दोषं आचरंति तस्माद्दोषाद् गर्हन्तोऽप्यात्मानं जुगुप्समानाः शुद्धधन्ते शुद्धचारित्रा भवन्तीति ॥६३१॥
पुरिमचरिमादु जला चलचित्ता चेव मोहलक्खा य ।
तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिळंतो॥६३२॥
पूर्वचरमतीर्थकरशिष्यास्तु यस्माच्चलचित्ताश्चैव दृढ़मनसो नैव, मोहलक्षाश्च मूढमनसो बहून् वारान् प्रतिपादितमपि शास्त्रन जानंति ऋजुजडा वक्रजडाश्च यस्मात्तस्मात्सर्वप्रतिक्रमणं दण्डकोच्चारणं । तेषामन्धलकघोटकदृष्टान्तः । कस्यचिद्राज्ञोऽश्वोऽन्धस्तेन च वैदापुत्र प्रति अश्वायौषधं पृष्टं स च वैद्यकं न जानाति, वैद्यश्च ग्रामं गतस्तेन च वैद्यपुत्रेणाश्वाक्षिनिमित्तानि सर्वाण्यौषधानि प्रयुक्तानि तैः सोऽश्वः स्वस्थी
गाथार्थ-मध्य तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़बुद्धिवाले, एकाग्र मन सहित और मूढ़मनरहित होते हैं। इसलिए जिस दोष का आचरण करते हैं उसकी गर्दा करके ही शुद्ध हो जाते हैं ॥६३१॥
प्राचारवृत्ति-मध्यम २२ तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़ बुद्धि वाले होते थे अर्थात् वे विस्मरण स्वभाव वाले नहीं थे—उनको स्मरण शक्ति विशेष थी, उनका चित्त स्थिर-रहता था, और वे विवेकपूर्वक कार्य करते थे। इसलिए जो दोष उनसे होता था उस दोष से अपनी आत्मा की गर्दा करते हुए शुद्ध चारित्र वाले हो जाते थे।
गाथार्थ-पूर्व और चरम के अर्थात् आद्यन्त तीर्थंकर के शिष्य तो जिस हेतु से चलचित्त और मूढ़मनवाले होते हैं इसलिए उनके सर्वप्रतिक्रमण है, इसमें अंधलक घोटक उदाहरण समझना ॥६३२॥
प्राचारवृत्ति-प्रथम और चरम तीर्थंकर के शिष्य जिस कारण से चंचल चित्त होते हैं अर्थात् उनका मन स्थिर नहीं रहता है । तथा मूढ़चित्त वाले हैं-उनको बहुत बार शास्त्रों को प्रतिपादन करने पर भी वे नहीं समझते हैं वे ऋजुजड़ और वक्रजड़ स्वभावी होते हैं। अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के शासन के शिष्यों में अतिसरलता और अतिजड़ता रहती थी और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्यों में कुटिलता और जड़ता रहती है अतः ये ऋजुजड़ और वक्रजड़ कहलाते हैं। इसी कारण से इन्हें सर्वदण्डकों के उच्चारण का विधान है।
इनके लिए अन्धलक घोटक दृष्टान्त दिया गया है । यथा- किसी राजा का घोड़ा अन्धा हो गया, उसने उस घोड़े के लिए वैद्य के पुत्र से औषधि पूछी। वह वैद्यक शास्त्र जानता नहीं था और उसका पिता वैद्य अन्य ग्राम को चला गया था। तब उस वैद्यपुत्र ने घोड़े की आँख के निमित्त सभी औषधियों का प्रयोग कर दिया अर्थात् सभी औषधि उस घोड़े की आँख में लगाता गया। उन औषधियों के प्रयोग से वह घोड़ा स्वस्थ हो गया अर्थात् जो आँख खुलने की औषधि थी उसी में वह भी आ गई। उसके लगते ही घोड़े की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org